________________ जैन साहित्य का समाजशास्त्रीय इतिहास भोगोलिक पुरातात्विक साक्ष्यों के प्राप्त तथ्यों की भांति ही जैन पुराणों में भारतवर्ष के भूगोल का वर्णन पाया जाता है। त्रेशठशलाका पुरुषों का चरित निरुपण करने के साथ ही इनसे सम्बन्धित भोगोलिक स्थानों का भी वर्णन पाया जाता है। इन भोगोलिक वर्णनों में तत्कालीन लोकालोक विभाग द्वीप समुद्र के वर्णनों के साथ जनपदों, नगरों एंव नदी पर्वतों का भी प्रसंगानुकूल उल्लेख हुआ है। लोक सम्बन्धी मान्यताऐं जैन पुराणों में इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को दो लोकों में विभाजित किया गया है - अलोकाकाश एंव लोकाकाश। अलोकाकाश जैनपुराणों में अलोकाकाश में जीव-अजीवात्मक आदि पदार्थों का अभाव पाया जाता है। गति एंव स्थिति के लिए आवश्यक धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय का अभाव होने से अलोकाकाश में जीव एंव पुदृगल की गति एंव स्थिति नहीं पायी जाती है। यह अलोकाकाश असीमित विस्तार वाला है। लोकाकाश लोकाकाश में कालद्रव्य एंव अवान्तर विस्तार से अन्य सभी पंचास्तिकाय इसमें स्थिर रहते हैं। यह लोक नीचे, ऊपर मध्य में क्रमशः वेत्रासन, भृदंग एक-एक बहुत बड़ी झालर के समान है। इन्हें अधोलोक मध्यलोक एंव उर्ध्वलोक कहा गया अधोलोक अधोलोक वेत्रासन की आकृति का चोकौर है। यह नीचे की और सातरज्जु प्रमाण है जो धीरे-धीरे मध्यलोक की स्थिति तक एक रज्जु प्रमाण रह जाता है। . ऊपर की और इसका विस्तार ब्रह्म ब्रह्मोत्तर स्वर्ग तक पॉच रज्जु प्रमाण है। धनोदधि धनवात और तनुवात ये तीनों वातावलय इसके चारों और है | जिनका रंग क्रमशः गोमूत्र के वर्ण, मूंग के समान वर्ण एंव परस्पर मिले हए वर्णो की आकृति ' के समान है। पृथ्वी के नीचे ये दण्ड/कार आकृति को धारण किये हुए बीस-बीस हजार योजन तक विस्तृत हैं। इन तीनों वातावलयों के ऊपर रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, पंकप्रभा, वालुकाप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा एंव महातमः प्रभा नामक सप्त भूमियॉ स्थित हैं पुराणों में इनका विस्तृत वर्णन पाया जाता है।