________________ जैन इतिहास की उत्पत्ति एवं विकास इतिहास की प्राचीनता सिद्ध करता है क्योंकि जीवन और समाज में समन्वयात्मक विचारों के निरुपण करने वाला सिद्धान्त एकाएक प्रस्तुत नहीं हो सकता। महावीर ने अपने उपदेश का माध्यम तत्प्रचलित लोकभाषा अर्द्धमागधी को बनाया। इसी भाषा में उनके शिष्यों ने उनके उपदेशों को आचारांगादि बारह अंगों में संकलित किया जो द्वादशांग आगम के नाम से प्रसिद्ध हुआ। भगवान महावीर से पूर्व हमें कोई भी जैन साहित्य अपने शाब्दिक एंव रचनात्मक स्वरुप में नहीं प्राप्त होता है। भगवान महावीर के उपदेशों का संकलन उनके गणधरों द्वारा द्वादशांग आगम में करके उसे बारह अंग एवं चौदह पूर्वो में निबद्ध किया गया। इन पूर्वो में महावीर एंव महावीर से पूर्व की अनेक विचारधाराओं, मतमतान्तरों तथ ज्ञान-विज्ञान का संकलन सर्वप्रथम उनके शिष्य गौतम इन्द्रभूति द्वारा किया गया। इन पूर्व नामक रचनाओं के अन्तर्गत तत्कालीन न केवल धार्मिक दार्शनिक व नैतिक विचारों का संकलन किया गया किन्तु उनके भीतर नाना कलाओं ज्योतिष,आयुर्वेद आदि विज्ञानों द्वारा फलित शकुन-शास्त्र,मन्त्रतन्त्र आदि विषयों का भी समावेश कर दिया गया था। किन्तु ये मूल आगम ग्रंथ समय के प्रभाव से आज अपने यथार्थ रुप में प्राप्त नहीं है। पश्चात्कालीन साहित्य में इनका स्थान-स्थान पर उल्लेख मिलता है। यह ग्रंथ महावीर निर्वाण से 162 वर्ष वाद विच्छिन्न हुए कहे जाते हैं। बारह अंग एंव चौदह पूर्वो के अन्तिम ज्ञाता श्रुतकेवली भद्रवाहु हुए। इस तरह कालकम से विच्छिन्न होते-होते वीर निर्वाण से 683 वर्ष बीतने पर जब अंगों एंव पूर्वो का सारा ज्ञान लुप्त हो गया तब सर्वप्रथम भूतबलि एंव पुष्पदन्त ने आचार्य धरसेन से श्रुताभ्यास करके षटखन्डागम नाम के सूत्रग्रंथ की रचना प्राकृत भाषा में की. इसका रचनाकाल. द्वितीय शताब्दी ई०पू० मान्य किया गया है। षटखण्डागम जैन आगम की परम्परा पर जो साहित्य निर्माण हुआ उसे चार अनुयोगों - प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग एंव द्रव्यानुयोग में विभाजित किया गया। षटखण्डागम से जीव द्वारा कर्मबन्ध और उससे उत्पन्न होने वाले परिणामों की व्यवस्था सूक्ष्मता एंव विस्तार से ज्ञात होती है। ई०पू० द्वितीय शताब्दी में ही गणधर ने कषायपाहुड सिद्धान्त ग्रंथ प्राकृत गाथाओं में निबद्ध किया। तत्पश्चात् जैन साहित्य निर्माण आन्दोलन का सूत्रपात ई० पू० 160 में कलिंग चक्रवर्ती खाखेल ने उड़ीसा के कुमारी पर्वत पर एक मुनि राम्मेलन बुलाकर किया।७४ संस्कृत साहित्य आचार्य गृद्धपिच्छ ने प्रथम शताब्दि में तत्वार्थसूत्र की रचना की। यह ग्रंथ सूत्र शैली का प्रथम दार्शनिक ग्रंथ है। तत्वार्थसूत्र 10 अध्यायों में विभक्त है। पहले