________________ 14 जैन साहित्य का समाजशास्त्रीय इतिहास - तीर्थकरों के चरित्र निरुपण की दृष्टि से बाइसवें तीर्थकर नेमिनाथ का चरित्रवर्णन जिनेश्वर सूरि ने 1175 ई० में किया। तेइसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ का चरित अभयदेव के प्रशिष्य देवभद्रसरि द्वारा वि०स० 1168 में रचा गया। तीर्थकरों के चरित्रों के अतिरिक्त प्राकृत भाषा में अनेक ग्रंथ ऐसे उपलब्ध हैं जिनमें किसी व्यक्ति विशेष के जीवन चरित द्वारा जैनधर्म के किसी विशेष नियम-संयम, उपवास, पूजा, विधिविधान, पात्रदान आदि की महत्ता वर्णित की है। इनमें सबसे अधिक प्राचीन तरंगवती कथा है। महेश्वर सूरिकृत “णायपंचमीकहा' की रचना का समय ई०सन् 1015 से पूर्वमान्य किया जाता है। इसमें 2000 गाथाएँ हैं जो 10 कथाओं में विभाजित हैं। जिनेश्वर सूरि के शिष्य धनेश्वर सूरिकृत “सुरसुन्दरीचरियं 4000 गाथाओं में पूर्ण हुआ है इसका रचनाकाल 1065 ई०वी० है। इस रचना में प्राकृतिक दृश्यों,पुत्रजन्म,विवाहादि उत्सवों,प्रातःसन्ध्या तथा वन,सरोवरों आदि का भी वर्णन किया गया है। उद्योतनसूरि के प्रशिष्य नेमिचन्द्रसूरि ने सं० 1136 ई० में “महावीर चरिय” एंव “रयणचूडराय-चरिय” लिखा है जिसका उद्देश्य देवपूजादि फल प्रतिपादन करना है। जैन कथाकारों ने स्त्रियों के शील सतीत्व, एंव पतिपरायण स्त्रियों से प्रभावित होकर अनेक चरित एंव कथा ग्रंथों की रचना की। हेमचन्द्र ने कुमारपाल चरित को बारहवीं शताब्दी में पूर्ण किया। इस रचना से चालुक्यवंशीय नरेश कुमारपाल के वंश एंव पूर्वजों का इतिहास ज्ञात होता हैं। प्राकृत कथा कोष . धर्मोपदेश के निमित्त लघु कथाओं का उपदेश श्रमण परम्परा में बहुत प्राचीनकाल से प्रभावित रहा है। सर्वप्रथम धर्मदासगणि ने इस शैली को उपदेशप्रकरण माला प्राकृत रचना में अपनाया। इसमें 544 गाथाएँ है जिनमें विनयशील,व्रत,संयम,दया, ज्ञान एंव ध्यानादि विषयक स्त्री पुरुषों के दृष्टान्त दिये गये हैं। हरिभद्रसूरि ने आठवी शताब्दी में उपदेशपद लिखे। कृष्णमुनि के शिष्य जयसिंहसूरि ने वि०सं० 615 में धर्मदास की कृति के अनुकरण पर 'धर्मोपदेश-माला विवरण” नामक रचना लिखी जिसमें शील,दान आदि सद्गुणों का माहात्म्य तथा राग द्वेषादि दुर्भावों के दुष्परिणाम से लेकर चोर जुवारी,शराबी तक सभी स्तरों के व्यक्तियों के वर्णन द्वारा समाज का चित्रण प्रस्तुत किया गया है। जिनेश्वर सूरिकृत "कथाकोषप्रकरण में (वि०सं० 1108) में जिनपूजा,सुपात्रदान आदि का महत्व, साथ ही राजनीति व समाज आदि का चित्रण भी किया है। इसी रुप में चन्द्रप्रभ महत्तर ने 11 वीं शताब्दी में विजयचन्द्र केवली एंव जिनचन्द्रसूरि ने बारहवी शती में संवेगरंग शाला की रचना की। बारहवीं शती में गुणचन्द्र ने 50 कथानक युक्त “कथारत्न कोष' की रचना की। इन कथा एंव काव्यों को मनोरंजक एंव सरल बनाने हेतू विविध सम्वाद,