________________ जैन इतिहास की उत्पत्ति एवं विकास 13 की / भवप्रंपच की कथा के साथ ही न्याय, दर्शन, आयुर्वेद, ज्योतिष, सामुद्रिक, निमित्तशास्त्र, स्वप्नशास्त्र, धातुविद्या, युद्धनीति एंव राजनीति का वर्णन भी किया गया है। मनुष्य कर्मो के अनुसार ही मनुष्य,तिर्यच,नारकी एंव देवगति रुप में जाता है। इसी शताब्दी में (सं० 675) में नाइलकुल के समुद्रसूरि के शिष्य विजयसिंह ने 8611 गाथाओं युक्त (गाथाओं) कथाग्रन्थ की रचना की। ईसा की दसवी शताब्दी में दक्षिण में नेमिचन्द्र-सिद्धान्त५ ने धवलाटीका, षटखण्डागम् एव कसायपाहुड इन तीन आगम ग्रन्थों के आधार पर गोम्मटसार तथा लब्धिसार क्षपणासार नाम के दो संग्रह ग्रंथ रचे उनमें भी जीव कर्म एंव कर्मों के विनाश का सुन्दर एंव गहन वर्णन है। नेमिचन्द्रसिद्धान्त चक्रवर्ति कृत "त्रिलोकसार" 1018 प्राकृत गाथाओं में वर्णित है इसका रचनाकाल 11 वीं शती है। नाइलगच्छीय गुणपाल मुनि ने अन्तिम केवली जम्वू स्वामी का जीवन चरित्र "जम्बूस्वामीचरिय" में किया। यह 16 उद्देशों में विभाजित है। इसका उद्देश्य जैन धर्म के उपदेशों को प्रभावशाली बनाना है। . धनपाल ने वि०सं० 1026 में “पाइअलच्छीनाममाला” नामक प्राकृत कोष की रचना की। इससे परमारराजा सीमकदेव द्वारा राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यरवेट को लूटने की जानकारी होती है। ___प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव पर अभयदेव के शिष्य वर्द्धमानसूरि ने सन् 1103 में 11000 श्लोक प्रमाण "आदिणाहचरिय' की रचना की। जिनबल्लभसूरिकृत "सार्धशतक' में जैन सिद्धान्तों के कुछ विषयों का सूक्ष्म निरुपण किया गया है। इसका रचनाकाल 1100 ई०वी० मान्य किया गया है। मलधारी हेमचन्द्र द्वारा 1107 ई०वी० में रचित 700 श्लोक प्रमाण “जीव समाज" नामक रचना 286 गाथाओं से युक्त है इसमें सत् संख्या आदि सात प्ररुपणों द्वारा जीवादि द्रव्यों का स्वरुप समझाया गया है। बट्टकेर स्वामी कृत "मूलाचार* दिगम्बर सम्प्रदाय में मुनिधर्म के लिए सर्वोपरि प्रमाण ग्रंथ माना जाता है। धवलाकार वीरसेन ने इसे “आचारांग” नाम से उद्धृत किया है यह बारह अधिकारों में विभाजित एंव 1243 गाथाएँ युक्त हैं। जीवानुशासन (1105 ई०वी०) में 323 गाथाओं द्वारा मुनिसंघ मासकल्प,वन्दना आदि मुनि चरित्र सम्बन्धी विषयों पर विचार किया गया है। इसकी रचना वीरचन्द्र सूरि के शिष्य देवचन्द्र सूरि ने की थी। जिन बल्लभसूरि (११वीं - 12 वीं शती) कृत "द्वादश कुलक" में सम्यकत्व एंव मिथ्यात्व का भेद तथा क्रोधादि कषायों के परित्याग का उपदेश पाया जाता है। शान्ति सूरी कृत (12 वीं सदी में) "धर्न-रत्नप्रकरण में 181 गाथाओं द्वारा श्रावकपद प्राप्ति के लिए सौम्यता, पापभीरुता आदि इक्कीस आवश्यक गुणों का वर्णन किया है।