________________ जैन इतिहास की उत्पत्ति एवं विकास 76. जै०शि०ले०सं० भाग 1, श्रवणवेल्गोला के शिलालेख सं० 47, 50, 52 / 77. जै०शि०ले०सं० भाग 2 लेखन० 55 श्री धाराध्यिभोजराजमुकुट प्रोताश्मरश्मिच्छटा श्रीमान्प्रभचन्द्रमा / 78. श्री मुंजेन सरस्वतीति सदसि क्षोणी भृता व्याहृतः / (तिलक मंजरी) 76. इति जयकीर्ति कृतौ छन्दोडनुशासन - सम्वत 1162 आषाढ शुदि 10 शनी लिखितमिदमिती।। यह ग्रंथ जैसलमेर के पुस्तक भंडार में है। प्रो० वेलण-करने अन्य कई छन्दग्रंथों के साथ "जयरामन” नाम से प्रकाशित किया है। 80. सहस्त्रलिंगसार प्रशस्ति के अन्त में - “एकहिनिष्प्रभ महाप्रबन्धः श्री सिद्धराजप्रतिप्रभु वन्धुः / श्री पालनांभा कवि प्रशस्तिमेताम करोत्प्रशस्ताम् / / 81. जै०सा०औ०इ० पृ० 316 / 82. प०च० (विमल०) 117, 118 83. प०च० (विमल) 103 अन्तिमप्रशस्ति 84. प०च० (विमल) 8 85. जनरल आफ ओरियन्टल इन्स्टीट्यूट बड़ौदा जिल्द 2 भाग 2 पृ 128 86. जैन साहित्य संशोधक खण्ड 3 87. जयधवलाटीका की प्रस्तावना पृ० 61-63 88. धवला में अनेक स्थानों पर इसका उल्लेख मिलता है और उसकी बहुत सी ___गाथाएँ भी उदधृत की है। - ध०पु०३, पृ० 36, ध०पु०४ पृ० 157 86. जिनरत्नकोष पृ० 416 60. जिनरत्नकोष पृ० 168 61. जैन साहित्य संशोधक वर्ष 3 अंक 3 में प्रकाशित / 62. संवत्सरशतनयके द्विषष्टिसहिते तिलंधितेः चास्याः / ज्येष्ठे सितपंचभ्यां पुर्नवसौ गुरुदिने समाप्तिरभूत / (प्रशस्तिपद्य) 63. जिनरत्नकोश पृ० 160, 326, 327 / - हिस्ट्रीआफ इण्डियन लिटरेचर भाग 2 पृ० 526-532 में विस्तृत वर्णन है। 64. जै०सा०सं०इ० पृ० 187 65. अनेकान्त वर्ष 4, अंक 3-4 66. जिनरत्नकोश पृ० 130 जै०सा० का वृहद इतिहास भाग 6 पृ० 154 67. पाइयलच्छीनाममाला 276 बी गाथा। 68. जै०सा०का०बृ०इ०भाग 6 पृ० 360 / 66. अनेकान्त फाइल वर्ष 11, किरण 6 / १००.काव्यालंकार 1/16-28