________________ जैन इतिहास की उत्पत्ति एवं विकास . 17 णायकुमारचरिउ (नागकुमार चरित) यह पुष्पदन्त का एक खण्डकाव्य है इसमें नौ संधियाँ है। इसमें पंचमी के उपवास का फल बतलाने वाला नागकुमार का चरित है१५ | पुराणों के अतिरिक्त विविध तीर्थकरों के चरित्र पर स्वतन्त्र काव्य लिखे गये। “पाषणाहचरिऊ की रचना पद्मकीर्ति ने वि० सं० 662 में अट्ठारह संधियों में पूर्ण की थी। कवि ने अपनी गुरुपरम्परा में सेन संध के चन्द्रसेन एंव जिनसेन का उल्लेख किया है। दूसरा "पाषणाह चरिऊ" कवि असवाल कृत पाया जाता है इसमें तेरह संधियाँ हैं। दसवीं शताब्दी में धनपाल (धक्कड़) द्वारा “भविसयत्तकहा की रचना हुयी। यह कथा बाइस संधियों में विभाजित हैं। ग्रंथ में बालक्रीड़ा, समुद्रयात्रा, उजाड़नगर-एंव विमानयात्रा का सजीव वर्णन है। सोलहवें सर्ग में अच्युत स्वर्ग का उल्लेख है। धनपाल ने 1026 ई० में “सत्पुरीयमहावीर-उत्साह” नामक फुटकर रचना की११६ | मुनि कनकामर ने “करकंडुचरिऊ” की रचना की। इसमें कल्चुरी राजा एंव चन्देलवंशीय राजा विजयपाल का उल्लेख हुआ है। ग्रंथ दस संधियों में पूर्ण हुआ है। ग्रंथ में गंगानदी, श्मशान, प्राचीन जिनमूर्ति के भवन से निकलने एंव रतिवेगा के विलाप का वर्णन अत्यन्त रोचक है। ___ धाहिल द्वारा रचित “पउमसिरि-चरिऊ' (पद्मचरित) चार संधियों में पूर्ण हुआ है। इसका रचनाकाल वि०सं० 1100 है। इस काव्य की नायिका पद्मश्री है। काव्य में देशों व नगरों का वर्णन, हृदय की दाह का चित्रण एंव सन्ध्या व चन्द्रोदय आदि प्राकृतिक वर्णन बहुत सुन्दर है। - प्रकाशित इन चरितकाव्यों के अतिरिक्त अनेक हस्तलिखित अपभ्रंश चरित ग्रंथ जैन शास्त्रभंडारों में हैं। इनमें कुछ विशेष रचनाएं इस प्रकार है - वीरकृत "जम्बूस्वामीचरिऊ (वि०सं० 1076) नयनन्दिकृत - “सुदंसएवरिऊ” (वि०सं० 1100) श्री धरकृत सुकुमालचरिऊ (वि०सं० 1208) है। हरिभद्र के प्राकृत “धूर्ताख्यान” कथाग्रंथ के आधार पर हरिषेण ने "धर्मपरिकहा" नामक ग्रंथ ग्यारह संधियों में लिया है। इसकी रचना वि० संव 1044 में हुयी। वि०सं० 1100 में नयमंन्दि ने "संकलविधिविधानकहा” और श्रीचन्द्र ने "कथाकोष" और “रतनकरंडशास्त्र की रचना वि०सं० 1123 में की। इन कथाग्रंथों के अतिरिक्त अपभ्रंश साहित्य में रासाग्रंथों जैसे 'उपदेशरसायनशास्त्र, नेमिरास, अन्तरंगरास, जम्बूस्वामीरास, समरास, तथा रंवतगिरिरास जैन कवियों द्वारा प्रणीत रासासाहित्य की प्रमुख रचनाएं हैं। अपभ्रंश साहित्य रचना में रड्ढा, ढक्का, चौपाई, पद्धड़िया दोहा, सोरठा, धन्ता, दुवई, भुजंगप्रयात् दोधक एंव गाहा आदि छन्दों को भी पर्याप्त स्थान मिला है।