________________ जैन इतिहास की उत्पत्ति एवं विकास नामक नीतिग्रंथ लिखा, इसके मंगलाचरण में वर्द्धमान तीर्थकर को नमस्कार किया गया है। दसवी शताब्दी में हरिषेण,असग-कवि,बालचन्द्र,वीरनन्दि एंव हरिश्चन्द्र संस्कृत के महाकवि हुए हैं। असग के "वर्द्धमान चरित” एंव “शान्तिनाथ चरित' महाकाव्य हैं। शान्तिनाथ चरित में सोलहवें तीर्थकर शान्तिनाथ का चरित्र निरुपण हुआ है। वीरनन्दि द्वारा रचित “चन्द्र-प्रभचरित' रधुवंश एंव कुमारसंभव के समान सरल है। महाकवि हरिश्चन्द्र का "धर्मशर्माभ्युदय” कवि माध के शिशुपाल वध के समान ही महत्वपूर्ण है। कवि के उपमान,उत्प्रेक्षाएं एंव कल्पनाऐं एंव बिम्बयोजनाएं बहुत महत्वपूर्ण हैं। धर्मशर्माभ्युदय की एक संस्कृत टीका मण्डलाचार्य ललितकीर्ति के शिष्य यथाकीर्तिकृत मिलती है। जिसका नाम “सन्देहध्वान्त-दीपिका है।६५ ग्यारहवीं शती में पार्श्वनाथ का पूर्णचरित वादिराजकृत (1025 ई०वी) “पार्श्वनाथ चरित' में पाया जाता है। यह बारह सर्ग का महाकाव्य है। यह “कामुस्स्थचरित्र” नाम से भी प्रसिद्ध है। यह चालुक्य चक्रवर्ती जयसिंहदेव की राजधानी में निवास करते हुए लिखा गया था। मल्लेिषणप्रशस्ति के अनुसार ये जयसिंहदेव द्वारा पूजित भी थे।६६ वादिराज ने 'पार्श्वनाथ चरित” में पूर्व कवियों के स्मरण में सम्मति का नाम लिया है जिन्होंने “सुमतिसप्तक' नामक ग्रंथ की रचना की जो अप्राप्य है, लेकिन संदर्भ प्राप्त होते हैं / 67 पार्श्वनाथ-चरित के अतिरिक्त वादिराज के अन्य चार रचनाओं -"यशोधर चरित 68. "एकीभाव स्तोत्र, न्यायविनिश्चय-विवरण, एंव प्रमाण निर्णय प्राप्त होते हैं। यशोधर चरित में भी “जयसिंह का उल्लेख किया गया है।६६ .. इसी शताब्दी में सोमदेव ने “यशस्तिलक चम्पू 70, “नीतिवाक्यामृत"७१ एंव "अध्यात्मतरंगिणी 72 ग्रंथों की रचना की। इसका कथानक गुणभद्र कृत उत्तरपुराण से लिया गया है। अन्तिम तीन अध्यायों में गृहस्थ धर्म का निरुपण हुआ है। नीतिवाक्यामृत को राजनीतिक एंव आर्थिक विचारों की दृष्टि से कोटिल्य के अर्थशास्त्र के समकक्ष रखा जा सकता है।७३ सोमदेव के युक्तिचिन्तामणिस्तव, त्रिवर्गमहेन्द्र, मातलिसंजल्प, षणवतिप्रकरण एंव स्यादनादोपनिषद, नामक ग्रंथ भी पाये जाते हैं। नीति वाक्यामृत पर संस्कृत टीका प्राप्त होती है। प्रारम्भ का मंगल श्लोक मूल नीतिवाक्यामृत का पूरा अनुकरण है।७४ नेमिनाथकृत नीतिवाक्यामृत पर कन्नड़ीटीका प्राप्त होती है। उन्होंने मेधचन्द्र विद्यदेव एंव वीरनन्दि का स्मरण किया है७६ अतएंव टीका रचना का समय बारहवीं शताब्दी का अन्त अथवा तेरहवी शताब्दी का प्रारम्भ माना जा सकता है। ये सोमदेव राष्ट्रकूटवंशी कृष्णराजदेव (867 से 864 ई० वी०) के राज्यकाल में था। ग्रंथ से राष्ट्रकूटों द्वारा चालुक्यों पर विजय प्राप्त करने की जानकारी होती है।