________________ जैन साहित्य का समाजशास्त्रीय इतिहास अध्याय में ज्ञान की मीमांसा है छठे से दसवें अध्याय तक चरित्र की। तत्वार्थसूत्र में धर्म क्या है?४५ मोक्ष के साधन क्या हैं? पंच महाव्रत क्या है।'' आदि जैन दर्शन आचार एंव सिद्धान्तों का निरुपण किया गया है। गृद्धपिच्छ के बाद संस्कृत भाषा का दार्शनिक कवि समन्तभद्र है। इनका समय प्रायः ईसा की दूसरी सदी है। समन्तभद्रकृत बृहतस्वयम्भू स्तोत्र में चौबीस तीर्थकरों की पृथक पृथक स्तुतियों की गयी हैं। समस्त पदों की संख्या 143 है। इसमें तात्विक, नैतिक एंव धार्मिक उपदेश दिये गये हैं। इस स्तोत्र में वंशस्थ,इन्द्रवजा,बसन्ततिलका आदि छन्दों का प्रयोग हुआ है। दूसरी स्तोत्र परक रचना स्तुति विद्या है इसमें 116 पद्य हैं। समन्तभद्र कृत देवागम स्तोत्र, सुकत्यानुशासन, रत्नकरण्ड, - श्रावकाचार,जीवसिद्धिविधायी,तत्वानुशासन,प्रमाणपदार्थ,कर्मप्रभृत्त टीका एंव गन्थ हस्ति महाभाष्य नामक ग्रंथ मिलते हैं। इसी शताब्दी में “सन्मतिसूत्र' की रचना प्राकृत में एंव द्वात्रि-शतिकाओं की रचना संस्कृत में दार्शनिक कवि सिद्धसेन ने की। कवि परमेष्ठी ने संस्कृत कन्नड़ मिश्रित “वागर्थसंग्रह' नामक पुराण ग्रंथ गंगवंश के शासनकाल में लिखा।८ विक्रम की पाचवी शदी के उत्तरार्द्ध में जैनों का पहला संस्कृत व्याकरण ग्रंथ "जैनेन्द्र व्याकरण” वैयाकरण जैनाचार्य देवनन्दि पूज्यपाद द्वारा लिखा गया। इसके सूत्र एंव संज्ञाएँ अति सूक्ष्म हैं। जैनेन्द्र व्याकरण के अतिरिक्त सर्वार्थ सिद्धि, समाधितन्त्र और दुर्विनीत के समय हुयी।५० श्रवणबेल्गोला के शिलालेख (श०सं० 1085) भी इसकी पुष्टि करते हैं। अभयनन्दि ने इस पर महावृत्ति लिखी है। देवनन्दि पूज्यपाद के शिष्य गुरुनन्दि (550 ई०) ने "जैनेन्द्र प्रक्रिया 52 वक्रग्रीव ने “नवशब्द वाच्य, पात्रकेशरी ने "प्रियलक्षणक-दर्शन', श्री वर्धदेव ने “चूड़ामणिशास्त्र', ऋषिपुत्र ने निमित्तशास्त्र और सहिताग्रंथ एंव श्री चन्द्रसेन ने केवल ज्ञान हीरा आदि ग्रंथों का प्रणयन जैन साहित्य के विकास को दिखाता है। पॉचवी शताब्दी तक के जैन साहित्य में जैनों के तत्वज्ञान दार्शनिक चिन्तन, लोकोक्त अध्यात्म एंव लोकोन्नायक आचार विचार पर अधिक ध्यान दिया। मूलतः जैनधर्म निवृत्तिमार्गी धर्म रहा है परिणामस्वरुप इस सांसारिक आवागमन में होने वाले क्लेशों से निवृत्ति पाने के उपायों पर ही विशेष रुप से बल दिया गया है यही कारण है कि प्रारंभिक जैन साहित्य के स्वरुप एंव परवर्ती जैन साहित्य के स्वरुप में अन्तर है। पूर्व-मध्ययुगीन धार्मिक साहित्य से पहले के जैन साहित्य में सूत्र शैली की पद्धति से जैन दर्शन एंव धर्म के सिद्धान्तों की प्रतिस्थापना की गयी हैं। .:. ई० के बाद का जो जैन साहित्य है वह बहुत कुछ हिन्दू परम्परा के कथानक एंव आख्यानों के जैनीकरण की प्रक्रिया अपनायी गयी। छठी शताब्दी में विभिन्न राज्यवंशों के प्रश्रय से जैन साहित्य की अधिकाधिक समृद्धि हुयी। इस समय त्रेशठशलाका-पुरुषों के चरित्र निरुपण को परमपुनीत एंव जैनधर्म के अनुकूल माना गया। उस समय के जैन साहित्य में तत्कालीन समाज एंव संस्कृति