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है। जैसे अनि वायु श्राश्रित्य आदि । परन्तु ऐतिहासिक आचार्यका मत है कि - अधिक्षता के रूप में ये देवता सर्वदा मनुयाकार ही होते हैं। अर्थात् अभि वायु, आदित्य, चन्द्रमा आदि. तो पुरुषत नहीं हैं परन्तु उनके जो अधिष्ठाता देव हैं वे पुरुषाकार ही होते हैं। किसी किसी आचार्यके मत से देव उभयरूप
(वरुण)
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इन देवताओं में वरुणदेव जलोंके स्वामी हैं। (वरुण अपामधिपतिः । अथववेद कां०५।२४।४) तथा यहीं शान्ति और भलाई का देवता है। शेष सत्र वैदिक देवता शाक्तिक हैं। सिन्धप्रान्त के शरूर शहर में सिन्धनदी के किनारे अति प्राचीन वरुणदेव का एक मन्दिर हैं जिसको 'वरना' पोरके नामसे पूजा जाता है । यह जलका देवता माना जाता है। तथा इरानी लोगों के यहाँ भी इस वरुण को 'वरण' नाम से पूजा जाता है। वे लोग इसको सब देवोंका पिता मानते हैं। मित्र और वरुण अति प्राचीन व प्रतिप्रित देव हैं। तथा वरुणको पश्चिम दिशाका दिपाल माना गया है।
मरुदगण
मरुद देवता गण रूप हैं ।
मरुतो मा गौरवन्तु ॥ अ० क ० १९४५ | १०
अर्थात् मरुत देवता गयो सहित मेरी रक्षा करें। तथा च शतपथ बाद में लिखा है कि
सप्त सप्तहि मारुता गणाः । श० ९/५/२/३/१६
अर्थात तो सात सात गए होते हैं।