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२६ ! परणानुयोग : प्रस्तावना स्वीकार किया है। उनके अनुसार इस विविधता का कारण तीनों बातें हमारी अन्तरात्मा को और उसके निर्णयों को प्रभाव्यक्तियों के परिवेश, धर्म और विश्वासों में पायी जाने वाली वित करती हैं । भिन्नता है। जो विचारक कर्म के नैतिक औचित्य एवं अनौचित्य इसी प्रकार साध्यवादी सिद्धांत भी किसी सार्वभौम नैतिक के निर्धारण के लिए विधानवादी प्रतिमान अपनाते हैं और जाति, मानदण्ड का दावा नहीं कर सके हैं। सर्वप्रथम तो ससमें इस प्रश्न समाज, राज्य या धर्म द्वारा प्रस्तुत विधि-निषेध (यह करो और को लेकर ही मतभेद है कि मानव जीवन का साध्य क्या हो यह मत करो) की नियमावलियों को नैतिक प्रतिमाम स्वीकार सकता है ? मानवतावादी विचारक, जो मानवीय गुण के विकास करते हैं. उनमें भी प्रथम तो इस प्रश्न को लेकर ही मतभेद है को ही नैतिकता की कसौटी मानते हैं इस बात पर परस्पर कि जाति (समाज), राज्य शासन और धर्मग्रन्ध द्वारा प्रस्तुत सहमत नहीं है कि आत्म-चेतना, विवेकशीलता और संघम में अनेक नियमावलियों में से किसे स्वीकार किया जाये? पुनः किसे सर्वोच्च मानवीय गुण माना जाए। समकालीन मानवता. प्रत्येक जाति, राज्य और धर्मग्रन्थ द्वारा प्रस्तुत ये नियमावलियां वादियों में जहां वारनर फिटे आत्ममेतनता को प्रमुख मानते है, भी अलग-अलग हैं। इस प्रकार बाह्य विधानवाद नैतिक प्रतिमान बहाँ सी० पी० गर्नेट और इसाइल लेकिन विवेकशीलता को तया का कोई एक सिद्धांत प्रस्तुत कर पाने में असमर्थ है । समकालीन इरविंग बविट बारमसंयम को प्रमुख नैतिक गुण मानते हैं । अनुमोदनात्मक सिद्धांत (Approhative Theories) जो नैतिक साध्यवादी परम्परा के सामने यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण रहा है प्रतिमान को वैयक्तिक, रुचि-सापेक्ष अथवा सामाजिक एवं धार्मिक कि मानवीय चेतना के ज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक और संकल्पाअनुमोदन पर निर्भर मानते हैं, किसी एक सार्वभौम नैतिक प्रति- त्मक पक्ष में से किसकी सन्तुष्टि को सर्वाधिक महत्व दिया गान का दावा करने में असमर्थ है। व्यक्तियों का विविध्य जाए। इस सन्दर्भ में सुग्धबाद और बुद्धिवाद का विवाद तो और सामाजिक आदर्शों में पायी जाने वाली भिन्नताएं सुस्पष्ट ही सुप्रसिद्ध ही है। सुखदाद जहाँ मनुष्य के अनुभूस्वात्मक (वासना. हैं। धार्मिक अनुशंसा भी अलग-अलग होती है । एक धर्म जिन स्मक पक्ष की सन्तुष्टि को मानव जीवन का साध्य घोषित कर्मों का अनुमोदन करता है और उन्हें नैतिक ठहराता है, दूसरा करता है। वहां बुद्धिवाद भावना निरपेक्ष बुद्धि के आदेशों के धर्म उन्ही कर्मों को निषिद्ध और अनैतिक ठहराता है। वैदिक परिपालन में ही नैतिक कर्तव्य को पूर्णता देखता है। इस प्रकार धमं और इस्लाम जहाँ पशुबलि को वैध मानते हैं, वहीं जैन, सुखदाद और बुद्धिवाद के नैतिक प्रतिमान एक दूसरे से भिन्न वैष्णव और दौद्ध धर्म उसे अनैतिक और अवैध मानते हैं। हैं। इसका मूल कारण दोनों की मूल्यवृष्टि की भित्रता है, एक निष्कर्ष यही है कि वे सभी सिद्धांत किसी एक सार्वभौम नैतिक मोगवाद का समर्थक है, तो दूसरा वैराग्यवाद का। मात्र यही प्रतिमान का दावा करने में असमर्थ हैं, जो नैतिकता की कसौटी, नहीं, सुखवादी विचारक भी "कौन-सा मुन्न साध्य है ?" इस वयत्तिक रुचि, सामाजिक अनुमोदन अथवा धर्मशास्त्र की अनु- प्रश्न पर एकमत नहीं है? कोई वैयक्तिक सुख को साध्य बताता शंसा को मानते हैं।
है तो कोई समष्टि सुख को अथवा अधिकतम लोगों के अधिकअन्तःप्रज्ञावाद अथवा सरल शब्दों में कहें तो अन्तरात्मा के तम सुख को। पुनः यह सुख, ऐन्द्रिक सुग्ष हो या मानसिक सुख अनुमोदन का सिद्धांत भी किसी एक नैतिक प्रतिमान को दे पाने हो अथवा आध्यारिमक आनन्द हो, इस प्रश्न पर भी मतभेद है । में असमर्थ है। यद्यपि यह कहा जाता है कि अन्तरात्मा के वैराग्यबादी परम्पराएँ भी सुख को साध्य मानती हैं. किन्तु बे निर्णय सरल, सहज और अपरोक्ष होते हैं, फिर भी अनुभव यही जिस सुख की बात करती हैं वह सुख वस्तुगत नहीं है, वह इच्छा, बताता है कि अन्तरात्मा के निर्णयों में एकरूपता नहीं होती। आसक्ति या तृष्णा के समाप्त होने पर चेतना की निन्द्र, प्रयम तो स्वयं अन्तःप्रजावादी ही इस सम्बन्ध में एकमत नहीं हैं तनावरहित, समाधिपूर्ण अवस्था है। इस प्रकार मुख को साध्य कि इस अन्तःप्रज्ञा की प्रवृति क्या है. यह बौद्धिक है या भावना- मानने के प्रश्न पर उनमें अम सहमति होते हुए भी उनके परक । पुनः यह मानना कि सभी की अन्तरात्मा एक-सी है, नैतिक प्रतिमान भिन्न-भिन्न ही होंगे, क्योंकि सुख की प्रकृतियाँ ठीक नहीं है, क्योंकि अन्तरात्मा को संरचना और उसके निर्णय भिन्न-भिन्न हैं। भी व्यक्ति के संस्कारों पर आधारित होते हैं । पशुबलि के सम्बन्ध मद्यपि पूर्णतावाद मात्मोपलब्धि को साध्य मानकर सुखवाद में मुस्लिम एवं जैन परिवारों में संस्कारित व्यक्तियों के अन्तरात्मा और बुद्धिवाद के बीच समन्वय साधने का प्रयत्न अवश्य करता के निर्णय एक समान नहीं होंगे । अन्तरास्मा कोई सरल तथ्य है. किन्तु वह इस प्रयास में सफल हुआ है. यह नहीं कहा जा नहीं है, जैसाकि अन्तःप्रज्ञावाद मानता है, अपितु यह विवेकात्मक सकता । पुन: वह भी किसी एक सार्वभौम नैतिक प्रतिमान को चेतना के विकास, पारिवारिक एवं सामाजिक संस्कारों तथा प्रस्तुत कर सकता है, यह मानना भ्रांतिपूर्ण है। क्योंकि व्यक्तियों परिवेशजन्य तथ्यों द्वारा निर्मित एक जटिल रचना है और ये के हित न केवल भिन्न-भिन्न हैं, अपितु परस्पर विरोधी भी हैं।