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सदाचरण : एक बौशिक विमर्श | २५
के सम्पादन में आत्मजाग्रत होता है तब उसका आचरण बाह्य अन वर्शन में मंतिक प्रतिमानों का अनेकान्तबाद! आवेगों और वासनाओं से चलित नहीं होता और तभी वह सच्चे वस्तुतः मनुष्यों की नीति-सम्बन्धी अवधारणाओं मापदण्डों अथों में नैश्चयिक चारित्र का पालनकर्ता माना जाता है । वस्तुतः या प्रतिमानों की विविधता ही नैतिक निर्णयों को भिन्नता का शाता-द्रष्टा बनकर जीवन जीना ही निश्चय सम्यक्चारित्र है। कारण मानी जा सकती है। जब भी हम किसी आचरण का
व्यावहारिक सम्यक-चारित्र का अर्थ आरमनियन्त्रण या नैतिक मूल्यांकन करते है तो हमारे सामने नीति सम्बन्धी कोई संयम है। पूर्व में मानव प्रकृति की चर्चा करते हुए हमने इस दण्ड, रिना R15 (Etanturi, श्या होता है, बात को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया था कि मनुष्म और पशु जिसके आधार पर हम व्यक्ति के चरित्र, आचरण अथवा कर्म में यदि कोई अन्तर है तो वह यह कि मनुष्य में आत्मनियन्त्रण का नैतिक मूल्यांकन (Moral valuation) करते हैं। विभिन्न या संयम की सामध्यं होती है, जबकि पशु में उस सामर्थ्य का देश, काल, समाज और संस्कृतियों में ये नैतिक मापदण्ड या अभाव होता है। पशु विशुद्ध रूप से एक प्राकृतिक जीवन जीता प्रतिमान अलग-अलग रहे हैं और समय-समय पर इनमें परिवर्तन है, उसका समस्त व्यवहार प्रकृति के नियमों के अनुसार संचा- होते रहे हैं। प्राचीन ग्रीक संस्कृति में जहाँ साहस और न्याय लित होता है । भूखा होने पर वह खाच सामग्री को प्राप्त करता को नैतिकता का प्रतिमान माना जाता था, वहीं परवर्ती ईसाई है और उसका उपभोग करता है, किन्तु भूख के अभाव में वह संस्कृति में सहनशीलता और त्याग को नैतिकता का प्रतिमान उपसब्ध खाद्य सामग्री को छूना तक नहीं है। इसके विपरीत माना जाने लगा। यह एक वास्तविकता है कि नैतिक प्रतिमान मनुष्य ने प्रकृति से विमुख होकर जीवन जीने की एक शैली या नैतिकता के मापदण्ड अनेक रहे हैं तथा विभिन्न व्यक्ति और विकसित कर ली है। भूख से पीड़ित होकर एवं खाद्य विभिन्न समाज अलग-अलग नैतिक प्रतिमानों का उपयोग करते सामग्री के उपलब्ध होने पर भी वह खाने से इन्कार कर सकता रहे हैं। मात्र यही नहीं, एक ही व्यक्ति अपने जीवन में भिन्नहै, तो दूसरी ओर वह पेट भरा होने पर भी अपनी प्रिय खाद्य भित्र परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न नैतिक प्रतिमानों का उपयोग सामग्री के लिए व्याकुल हो सकता है वह उसका उपभोग कर करता है । नैतिक प्रतिमान के इस प्रश्न पर न केवल जनसाधारण लेता है। मनुष्य में एक ओर बासना की तीव्रता है तो दूसरी में अपितु नीतिवेत्ताओं में भी गहन मतभेद है। ओर संयम की क्षमता भी है । वस्तुतः यह संयम उसकी साधना नैतिक प्रतिमानों (Moral Standards) को इस विविधता का मूल तत्व है। यह संयम ही उसे पशुत्व से ऊपर साकर और परिवर्तनशीलता को लेकर अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं । देवरव तक पहुँचाता है जबकि संयम के अभाव में पशु से भी क्या कोई ऐसा सार्वभौम नैतिक प्रतिमान सम्भव है, जिसे सार्वनीचे उतर जाता है एक दरिदा या राक्षस बन जाता है। यह लोकिक और सार्वकालिक मान्यता प्राप्त हो? यद्यपि अनेक संयम साधना ही जैन धर्म और जैनाचार का मूल तत्व है। नीतिवेताओं ने अपने नैतिक प्रतिमान को सार्वलौकिक, सार्वसदाचार या सम्यक चारित के स्वरूप को विस्तृत चर्चा के पूर्व कालीन एवं सार्वजनीन सिद्ध करने का दावा अवश्य किया है, हमें सदाचार या दुराचार के मूलभूत दार्शनिक प्रश्नों की चर्चा किन्तु जब वे ही आपस में एकमत नहीं हैं तो फिर उनके इस करनी होगी।
दावे को कैसे माग्य किया जा सकता है ? नीतिशास्त्र के इतिहास जैन आचार शास्त्र की प्रमुख समस्याएं
की नियमवादी परम्परा में कबीले के बाह्य नियमों की अब __ जैन आचार के प्रमुख प्रश्नों में सबसे प्रथम प्रश्न यह है कि धारणा से लेकर अन्तरात्मा के बादेश तक तथा साध्यवादी जैनधर्म में सदाचार-दुराचार का आधार क्या है। वह कौनसा परम्परा में स्थल स्वार्थमूलक सुखवाद से प्रारम्भ करके बुद्धिवाद, मानदण्ड है, जिसके आधार पर किमी कर्म को सदाचार या पूर्णतावाद और मूल्यवाद तक अनेक नैतिक प्रतिमान प्रस्तुत किये दुराचार की संज्ञा देते हैं । इसके साथ आचारशास्त्र की दूसरी गये हैं। समस्या यह कि क्या कोई भी कर्म या आपार निरपेक्ष रूप से यदि हम नैतिक मूल्यांकन का आधार नैतिक बावगा सदाचार या दुराचार बना रहा है अथवा देश, काल और परि- (Moral Sentiments) को स्वीकार करते हैं तो नैतिक मूल्यांकन स्थिति के आधार पर उममें परिवर्तन होता है। तीसरा इसी से में एकरूपता सम्भव नहीं होगी, क्योंकि व्यक्तिनिष्ठ नैतिक जुड़ा हुआ उत्सर्ग मार्ग और अपवाद मार्ग का प्रश्न है। आगे आवेगों में विविधता स्वाभाविक है। नैतिक आवेगों की इस हम इन्हीं प्रश्नों पर पर्चा करेंगे।
विविधता को समकालीन विचारक एडवई वैस्टरमार्क ने स्वयं
१ विस्तृत विवेचन के लिए देखें-जैन, बौद्ध और गीता के आचार वर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग १, अध्याय ५,५.१९६
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