________________
I
'सदाचरण एक बौद्धिक विमर्श | २३ अन्य दर्शनों में इसे आत्म-अनात्म विवेक के नाम से जाना जा एवं पदार्थों से अपनी भिनता का बोध करता है। चाहे अनुभूति सकता है । के स्तर पर इनसे भिन्नता स्थापित कर पाना कठिन हो किन्तु ज्ञान के स्तर पर यह कार्य कठिन नहीं है। क्योंकि यहाँ तादात्म्य नहीं रहता है अतः पृथकता का बोध सुस्पष्ट रूप से होता है। किन्तु इसके बाद क्रमशः उसे शरीर से, मनोवृत्तियों से एवं स्वयं के रागादिक भावों से अपनी मित्रता का बोध आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अतः वर्ण करना होता है, जो अपेक्षाकृत रूप से कठिन और कठिनतर है, अभ्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं । क्योंकि यहाँ इनके और हमारे बीच तादात्म्य का बोध बना गन्ध आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अतः रहता है फिर भी हमें यह जान लेना होगा कि जो कुछ पर के गन्ध अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं । निमित्त से है वह हमारा स्वरूप नहीं है। हमारे रागादि भाव रस आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अतः रस भी पर के निमित्त से हो हैं । अतः वे हममें होते हुए भी हमारा अन्य है और आत्मा अन्य है. ऐसा जिन कहते हैं । निजस्वरूप नहीं हो सकते हैं। यद्यपि ने आस्था में होते हैं फिर भी आत्मा से भिन्न हैं, क्योंकि उसका निजरूप नहीं है। जैसे गरम पानी में रही हुई उष्णता, उसमें रहते हुए भी उसका स्वरूप
स्पर्श आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अतः रूप अन्य है और आत्मा अन्य है। ऐसा जिन कहते हैं।
कर्म आत्मा नहीं है, क्योंकि कर्म कुछ नहीं जानते बतः कर्म नहीं है, क्योंकि वह अति के संयोग के कारण है वैसे हो रामावि
अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं ।
अध्यवसाय आत्मा नहीं है. क्योंकि अध्यवसाय कुछ नहीं जानते (मनोभाव भी किसी के द्वारा जाने जाते है वे स्वतः कुछ नहीं जानते, यथा— क्रोध के भाव को जानने वाला ज्ञायक उससे भिश है) अतः अध्यवसाय अन्य है और आत्मा अन्य है ।
भाव आत्मा में होते हुए भी उसका अपना स्वरूप नहीं हैं। यह स्वस्वरूप का बोध ही जैन साधना का सार है जिसकी विधि है विज्ञान अर्थात् जो से भिन्न है उसे (पर) के रूप में जानकर उसमें रहो हुई तादात्म्यता के बोध को तोड़ देना । ममता बन्धन शिथिल हो जाता है। वस्तुतः जब माधक इस भेदविज्ञान के द्वारा यह जान लेता है कि पर क्या है तो उस पर के प्रति उसका अपनेपन का भाव भी समाप्त हो जाता है। वस्तुतः जो कुछ भी पर है, अपने से भिन्न है वह सब सांयोगिक है अर्थात् संयोगवश हो हमें मिला है। जो संयोगवश मिला है. उसका विमोध भी अनिवार्य है, जिसका वो होता है वह हमारे लिए दुःख का कारण ही है। इसीलिए बोद्ध परम्परा में भी कहा गया है जो अनात्म है अर्थात् पराया है वह अनित्य है। अर्थात् उसका वियोग या नाम अपरिहार्य है और जिसका वियोग या नाम अपरिहार्य है वह दुःख रूप ही है ।" हमारा बन्धन और दुःख इसीलिए है कि हम पहले आत्मबुद्धि स्थापित करते हैं फिर उसके वियोग या नाश से अथवा नाश की सम्भावना से दुःखी होते हैं। जैसाकि हम पूर्व में भी स्पष्ट कर चुके हैं दुःख या पीड़ा वहीं तक है जहाँ तक पर में आत्मभाव है। हमारे जीवन का एक सामान्य अनुभव है कि हम प्रतिदिन अनेकों को मरता हुआ देखते हैं वा सुनते हैं, किन्तु उनकी मृत्यु हमारे हृदय को विचलित नहीं करती, हम सामान्यतया दुःखी नहीं होते, क्योंकि उन पर हमारा कोई राय
वस्तुतः
अनात्म में
भेदविज्ञान की इस प्रक्रिया में आत्मा सबसे पहले वस्तुओं भाव या ममत्व बुद्धि नहीं है, किन्तु जहां भी राग माव जुड़
आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में इस भेद-विज्ञान की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- रूप आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अतः रूप अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा किन है।
अपने शुद्ध ज्ञायक रवरूप की दृष्टि से आत्मा न राग है, न द्व ेष है, न मोह है, न क्रोध है, न मान है, न माया है, न लोभ हैं। अपने शुद्ध स्वरूप में वह इनका कारण और कर्ता भी नहीं है।"
वस्तुत मारया जब अपने शुद्ध जाता स्वरूप में अवस्थित होता है, तो संसार के समस्त पदार्थ ही नहीं, वरन् उसकी अपनी चित्तवृत्तियाँ और मनोभाव भी उसे "पर" (स्त्र से भिन्न ) प्रतीत होते हैं। जब वह "पर" को पर के रूप में जान लेता है और उनसे अपनी पृथकता का बोध कर लेता है तब उसकी ममता या रागभाव समाप्त हो जाता है और वह अपने शुद्ध जायक स्व रूप को जानकर उसमें अवस्थित हो जाता है, यही वह अवसर होता है जब मुक्ति का द्वार उद्घाटित होता है, क्योंकि जिसने पर को पर के रूप में जान लिया है तो उसके लिए ममत्व या राग के लिए कोई स्थान नहीं रहता है। राग के गिर जाने पर वीतरागता का प्रकटन होता है और मुक्ति का द्वार खुल जाता है ।
१ समयसार, ३६२-४०३, नियमसार ७६-८१ ।
२३४/१/१/१:२४/१/१/४ २४/१/१/१२ ।