Book Title: Charananuyoga Part 2
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 25
________________ सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | १६ तियों को समझने के दो ही रास्ते हैं। या तो हम स्वयं आग्रह, होगी और तब तक उनसे छुटकारा भी सम्भव नहीं है । क्योंकि मनोमतान्धता और राग-द्वेष के घेरे से उपर उठकर तटस्थ भाव से विकृतियां तभी पनपती है जबकि हम उनके द्रष्टा नहीं बनते हैं । उनके द्रष्टा बनें, स्वयं अपने में आंके और अपने को देखें अथवा आचारोग सूत्र में कहा गया है कि 'सम्यकदष्टा कोई पाप नहीं फिजिसने वीतराग दृष्टि से सत्य को देखा है उसके बननों पर करता।" फिन्तु यह बात हमारे सामने कुछ उलझन भी पैदा विश्वास करें। वीतराग के वचनों पर विश्वास या श्रद्धा-गह कर देती है, क्योंकि शारों में अनिरत सम्पष्टि का भी सम्यक् दर्शन का दूसरा अर्थ है । जिस प्रकार हमें अपनी बीमारी उल्लेख है। अविरत राम्य-दृष्टि वह है जो अपने विषय वासको समझने के लिए दो ही मार्ग होते हैं, एक तो जीवन के पूर्वा- नाओं या मनोविकृतियों को जानकर भी उनसे अपने को मुक्त पर सानुभवों की तुलना के द्वारा स्वयं यह निश्चय करें कि हमारे नहीं कर पाता है। वैसे यह एक अनुभाविक तथ्य भी है कि स्वास्थ्य में कोई विकृति है या फिर जो डाक्टर या विशेषज्ञ है सत्य को जानकर भी अनेक बार उसका आचरण सम्भव नहीं उनकी बात पर विश्वास बरें । उसी प्रकार जीवन के सत्य का होता । महाभारत में दुर्योधन कहता है-"मैं धर्म को जानता या तो स्वयं अनुभव करें या फिर जिन्होंने उसे जाना है उनके हूँ किन्तु उसका आचरण नहीं कर पाता हूँ, मैं अधर्म को भी अपनों पर विश्वास करें। अतः सम्यक् दर्शन का मह दूसरा जानता हूं किन्तु उससे छुटकारा नहीं पा सकता हूँ।" किन्तु अर्थ हमें यह बताता है कि यदि हम स्वयं जीवन के सत्य को यहाँ हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसा जानना केवल औपऔर अपनी विकृतियों को ममझने में सक्षम नहीं हैं तो हमें चारिक जानना है । क्या कोई विष को विष के रूप में जानते वीतराग के वचनों पर श्रद्धा रखकर उन्हें जान लेना चाहिए । हुए भी उसका भक्षण कर सकता है ? वस्तुतः बुराई को बुराई क्योंकि एक बात वह दो रोग को रोग के रूप में के रूप में जानते हुए भी उसमें लिप्त रहना, कम से कम उसका जान लेता है यही रोग की चिकित्सा करवाता है, और वही सही रूप में जानना तो नहीं कहा जा सकता, वह उस सत्य के रोग से मुक्त होका है। प्रति हमारी निष्ठा का सूचक तो किसी भी स्थिति में नहीं माना वस्तुतः आध्यात्मिक विकृतियों को जानने के लिए हमें जा सकता । यदि हम सत्य के प्रति निष्ठावान हैं, तो उसे हमारे तटस्थ भाव से अपने अन्दर झांकना होता है, अपनी वृत्तियों को जीवन व्यवहार में अभिव्यक्त होना ही चाहिए। देखना होता है यही सम्यक् दर्शन है। वस्तुतः कोई व्यक्ति वैसे जो आगम' में यह कहा गया है कि सभ्यष्टि कोई सम्यदृष्टि है या नहीं इसकी पहचान उसका बाह्य जीवन पाप नहीं करता-उसका भी अपना एक अर्थ है। देखना और नहीं हैं अपितु इसकी पहचान है कि वह अपनी विकृतियों को, करना--ये दोनों ही मन को ही प्रवृत्तियां हैं और दोनों एक अपनी कषायों को और अपनी राग-द्वेष की युत्तियों को कितना साथ सम्भव नहीं हैं। जिस समय मैं अपनी दुष्प्रवृत्तियों या अपने और किस रूप में जान पाया है। वस्तुत: अपनी वृत्तियों का विषय-विकारों या वासनाओं का द्रष्टा होता है, उसी समय मैं दृष्टा ही सम्यक् दृष्टा है । सम्यक् दर्शन अपने आपका दर्शन है। उनका कर्ता नहीं रह सकता हूँ। इस बात को एक सामान्य अपनी वृत्तियों का और अपनी भावनाओं का दर्शन है। वह उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है। मान लीजिए, हम अपने आपको पढ़ना और देखना है। वस्तुतः मैं सम्यक दृष्टि हूँ क्रोधित हैं। यदि उसी समय हम उस क्रोध के भाव को देखने या नहीं-इसकी पहचान इतनी ही है कि मैं अपनी मनोवृत्तियों का प्रयल प्रारम्भ कर दें, उसके कारणों का विश्लेषण करना को और कमियों को कहाँ तक और कितना जान पाया हूँ। क्या प्रारम्भ कर दें, तो निश्चित ही हमारा क्रोध समाप्त हो जायेगा। मैं यह देख पाया हूँ कि मुझमें क्रोध, मान, माया और लोभ के क्रोध को देखना और क्रोध करना, यह एक साथ सम्भव नहीं तत्व अथवा राग-द्वेष के. मात्र कहाँ तक छिपे बैठे हैं। है। जब भी व्यक्ति अपने मनोभावों का द्रष्टा बनता है उस वस्तुतः दृष्टा या साक्षी भाव ही एक ऐसी अवस्था है जो समय वह उनका वार्ता नहीं रह जाता है। जब भी हम वासनाओं हमें आध्यात्मिक विकृतियों से मुक्त कर सकती है। सम्यक-दर्शन में होते हैं, आवेश में होते हैं तब हम द्रष्टा भाव में नहीं होते हैं, को साधना का मूल आधार कहने का तात्पर्य यही है कि जब अप्रमत्त नहीं होते हैं, आत्मचेतन नहीं होते हैं, और जब आत्मतक व्यक्ति को अपनी वासनाओं और विकारों का बोध नहीं चेतन होते हैं, द्रष्टा होते हैं, तो कोधादि विकारों के कर्ता नहीं होगा तब तक उनके प्रति उसके हृदय में एक ग्लानि उत्पन्न नहीं होते । आत्मचेतन होना, द्रष्टा होना, अप्रमत्त होना, निष्पाप १ सम्मत्तसो न करेह पाव-आचारांप १/३/२ । २ जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिः, जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः । महाभारत, उद्धत, नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, डा. संगमलाल पाण्डेय, द्वितीय संस्करण, प. ३२१ ।

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