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२२ | चरणानुयोग : प्रस्तावना वास्तविक सिंह के दर्शन से अपने प्रसुप्त सिंहत्व को प्रकट कर है अतः आसक्ति, राग या अनात्म में आत्म-बुद्धि को समाप्त करने लेता है, उसी प्रकार स.धक तीर्थकर के गुण-कीर्तन या स्तवन के के लिए ज्ञान आवश्यक है। जैन परम्परा में ऐसे ज्ञान को द्वारा निज में जिनस्व का बोध कर लेता है, स्वयं में निहित सम्यग्ज्ञान और ऐमे ज्ञान की प्रक्रिया को भेद-विज्ञान कहा गया परमात्मशक्ति को प्रकट कर लेता है।
है। वस्तुतः मेद विज्ञान वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा साधक जैन साधना यह स्वीकार करती है कि भगवान की स्तुति आत्म और अनात्म में या स्व वा पर में भेद स्थापित करता है। हमारी प्रसुप्त अन्तश्चेतना को जागृत करती है और हमारे आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने समयसार की टीका में कहा है कि जो सामने साधना के आदर्श का एक जीवन्त चित्र उपस्थित करती कोई भी सिद्ध हुए हैं वे सभी इसी भेद विज्ञान से हुए है और है । मात्र यही नहीं, वह हमें उस आदर्श की प्राप्ति के लिए जो कोई बन्धन में हैं वे सभी इसी भेद-विज्ञान में अभाव के प्रेरणा भी देती है। जैन विचारकों ने स्वीकार किया है कि कारण है।' आत्मज्ञान भारतीय और पाश्चात्य सभी चितन्को भगवान की स्तुति के माध्यम से व्यक्ति अपना आध्यात्मिक का मूलभूत उद्देश्य रहा है। अपने और पराये या स्व और पर विकास कर सकता है । यद्यपि इसमें प्रयत्न व्यक्ति का ही होता में भेद स्थापित कर लेना यही आसक्ति और ममत्व को तोड़ने है लेकिन साधना के आदर्श उप महापुरुषों का जीवन उसकी का एकमात्र उपाय है। यद्यपि यह कहना तो सहज है कि प्रेरणा का निमित्त जावश्यक होता है। उत्तराध्ययन मूत्र में कहा "स्व" को स्व के रूप में और पर के रूप में जानो; किन्तु यही *पा है कि स्तवन से व्यक्ति की दर्शनविशुद्धि होती है। इसका साधना की सबसे कठिन प्रक्रिया भी है। दृष्टिकोण सम्यक जनता है और परिणामस्वरूप वह माध्यास्मिक स्व को जानना तो अपने आप में एक दार्शनिक समस्या है, विकास की दिशा में आगे बढ़ सकता है। यद्यपि जैन धर्म में क्योंकि जो भी जाना आयेगा वह तो पर ही होगा 1 जानना यह माना गया है कि भगवद्भक्ति के फलस्वरूप पूर्व संचित कर्मों हमेशा पर का ही हो सकता है। स्व तो वह है जो जानता है, का क्षर होता है, तथापि इसका कारण परमात्मा की कृपा नहीं जाता है । जो जानने वाला या शाता है यह ज्ञेय अर्थात् ज्ञान वन व्यक्ति के दृष्टिकोण की विशुद्धि ही है। आवश्यकनियुक्ति का विषय नहीं हो सकता। जिस प्रकार आँख समस्त विश्व को में जैनाचार्य भद्रवाह ने इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार देख सकती हैं, लेकिन स्वयं अपने आपको नहीं देख पाती है, नट किया है कि भगवान के नामस्मरण मे पाप क्षीण होते हैं। स्वयं अपने कन्धे पर नहीं चढ़ पाता है, उसी प्रकार ज्ञाता आत्मा आचार्य विनय चन्द्र भगवान की स्तुति करते हुए कहते हैं- स्वयं को नहीं जान सकता। ज्ञाता जिसे भी जानेगा वह तो
पाप-पराल को पुंज बन्यो अति, मानो मेरू आकारो। ज्ञान का विषय होने से उससे भिन्न होगा। इसीलिए उपनिषद् ते तुम नाम हलासन सेती, सहज हो प्रजलत सारो ॥ में कृषि को कहना पड़ा था कि "fज्ञाता को कैसे जाना जावेगा,
हे प्रभु आपको नामरूपी अग्नि में इतनी शक्ति है कि उससे जिससे सब कुछ जाना जाता है उसे कैसे जाना जाये । बास्तमेरु समान पाप समूह भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। किन्तु विकता तो यह है कि जो सम्पूर्ण ज्ञान का आधार है, जो स्वयं यह प्रभाव प्रभु के नाम का नहीं अपितु साधक की आत्मिक जानने वाला है उसे कैसे जाना जा सकता है। मैं जिस भाति शक्ति का है। जैसे मालिक के जागने पर चोर भाग जाते हैं, पर को जान सकता हूँ उसी भांति स्वयं को नहीं जान सकता । उसी प्रकार प्रभु के स्वरूप के ध्यान से आत्म-चेतना या स्वशक्ति इसीलिए आत्मज्ञान जैसी सहज घटना भी दुलह होती है । का भान होता है और पाप करी चोर भाग जाते हैं। वस्तुतः आत्मज्ञान वह ज्ञान नहीं हैं जिससे हम परिचित हैं। सम्यग्ज्ञान का स्वरूप एवं स्थान
सामान्यज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का जानने वाला और जो कुछ बन्धन मा दुःख के कारणों की विवेचना में लगभग सभी जाना जाता है उसका भेद बना रहता है जबकि भास्मज्ञान में विचारकों ने अज्ञान को एक प्रमुख तत्व माना है और इसलिए यह भेद सम्भव ही नहीं। उसमें जो जानता है और जिसको दुःख विमुक्ति के उपायों में ज्ञान को प्रमुखता दी गई है। बन्धन जाना जाता है वे दोनों अलग-अलग नहीं होते। वस्तुत: आत्मया दुःख के कारण इस अज्ञान को मोह के नाम से भी सम्बोधित ज्ञान की प्रक्रिया एक निषेधात्मक प्रक्रिया है उसमें हम इस बात किया गया है । वस्तुतः अज्ञान के कारण सनात्म या पर में से प्रारम्भ करते हैं कि मैं क्या नहीं हूँ। "पर" से पा जो ज्ञान आत्म-बुद्धि या अपनेपन का भाव उत्पन्न होता है, राग या ममता का विषय है उससे अपनी भिन्नता स्थापित करते जाना यही का सुजन होता है और यही समस्त दुःखों एवं बुराइयों की जड़ आत्मज्ञान की प्रक्रिया है । इसे ही भेद-विज्ञान कहा गया है ।
१ उसराध्ययन सूत्र, २९/81 ३ समयसार टीका १३१ ।
२ आवश्यक नियुक्ति १०७६ । ४ बृहदारण्यक २/४/१४ ।