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४४-४५
केअधर्म की प्राप्ति
एवं मता महंत धम्ममिणं सहिता बहू जगर गुणो शराणा विरता तिन महोधमाहित
धम्मरस दीवोयमा४५. जहा से बीजे असं दोने एवं से धम्मे आरियपबेसिए । ते धनयमाणा अमलियामाणा दद्दता मेधावियो पंडिता'
- सू. सु. १, अ. २, उ. २, गा. २५-३२ किया है, यह भगवान महावीर ने कहा है । धर्म को द्वीप की उपमा
केवलिपण्णत्तस्स धम्मस्स अपत्तिकोणतं धम्मं पाए तं जहा-आरम्भे चैव परिय ठाणं अ. उ. १, भु. ५४
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सु. १, ६, ७.२, सु. १६१ स्थान) होता है।
दोहि हि जाया केवल धम्मं मेरुवा तं जहा सोच्चच्चेष, अभिसमेन्च नेव ।
उ०- गोया ! असोचचर णं केवलिस्सा---जावतप्पसिवा अलिए
धन्यं लज्जा सवर्णयाए अत्येगतिए, केवलपन्नत्तं धम्मं नो सभेज्जा सणयाए ।
इस प्रकार जानकर सबसे महान् (अनुत्तर) आहंदूधर्म को मात (स्वीकार करके सनादिन से धन्दानुवर्ती (आज्ञाधीन या अनुज्ञानुसार चलने वाले) एवं पाप से विरत अनेक मानवों (साधकों) ने इस विशाल प्रवाहमय संसार सागर को पार
४६. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों को ज्ञपरिज्ञा से जाने और प्रत्याख्यान परिज्ञा से छोड़े बिना आत्मा कंवलिप्रज्ञप्त धर्म को नहीं सुन पाता ।
केवलिपण्णसरस धम्मस्स पति
केवलिप्त धर्म की प्राप्ति
४७. दो ठाणाई परियाणता आया केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्ज ४७. आरम्भ और परिग्रह — इन दोनों स्थानों को ज्ञपरिक्षा से सवाए तं महापरि जानकर और प्रत्याख्यानपरजा से त्याग कर आत्मा केवलिप्रज्ञप्त धर्म को सुन पाता है।
१ लाख
दिन परिनि
२ प० -- महाउदग वेगेणं, बुज्झमाणाण पाणि उ०- एगो महादीयो, वारिशे महालको प० - दीने य इह के वृत्ते ? केसी गोयममध्ववी उ०- जरामरणवेनं क्षमाणा पाणिनं
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धर्म-ज्ञापन ક
४५. जैसे अदीन (जल में नहीं डूबा हुआ) द्वीप (जलपोतयात्रियों के लिए आसान स्थान होता है, मैं ही आर्य (तीर्थंकर) द्वारा पदि धर्म (संसार समुद्र पार करने वालों के लिए आश्वासन
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केवलिप्त धर्म की अप्राप्ति
- ठा. अ. २, उ. १. सु. ५५ ४८. १० -- असोच्वा णं भंते । केवलिस्स या केवलिसवगस्स वा ४८. प्र० - हे भदन्त । केवली से केवली के धावक से, केवली केवलसावियाए वा केवलिउवा सगस्स या केवलिया की धाविका से केवली के उपासक से, केवली की उपासिका से सिपाए वा तपसि वा तपास वा केवली के पालक से फैली पाक्षिक घावन से केवल-वाि तपसा वा पासमा था तप्पाका से केवल पाक्षिक उपासे के पाउपालिका डिवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेन्जा सवाए ?
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धर्म की उपादेयता गुनने और उसे जानने इन दो स्थानों (कारणों से आत्मा केवल धर्म को सुन पाता है।
से बिना सुने ही कोई जीव केवली प्रज्ञप्त धर्म के श्रवण का लाभ प्राप्त कर सकता है ?
उ०- मौनम केवली से पावलोपाक्षिक उपा शिका से बिना सुने कई जीव धर्मप्राप्त कर सकते हैं । कई जीब केवली प्रज्ञप्त धर्म का श्रवण प्राप्त नहीं कर सकते हैं ।
- सूय० सु० २ ० ३ ० ३ ० २३२
सरथं मई पट्ठा व धी के नन्सी मुणी ? महादवेवरस पईतल्य
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न विज्जई ॥ केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणभब्बवी ॥ धम्मो दीपाय नई सरणमुत्तमं ॥
- उत्त० अ० २३, गा० ६५-६६
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