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राज्यतन्त्रका लक्षण
व्यक्तिगत सुख सुविधाओं तथा राजकीय भाडम्बरों में व्यय करके नष्ट न कर डालें।
राज्यतन्त्रायत्तं नीतिशास्त्रम् ।। ४३॥ समाजमें प्रचलित या व्यवहृत नीतिशास्त्र, राज्यव्यवस्थाकी नीतिके ही अधीन ( अनुसार) होता है।
विवरण-- राष्ट्र तब ही नीतिपरायण रहसकता है, जब कि उसका राज्यतन्त्र नीतियुक्त हो । यदि राज्यतन्त्रमें नीतिका प्रयोग न होरहा हो तो लोकमें नीति नामकी कोई वस्तु नहीं रहती । राज्यतन्त्रका अर्थ समा. जकी नीतिमत्ता है। राज्यतन्त्रसे बाहर नीति नामकी कोई वस्तु नहीं रहती । नीति राज्यतन्त्रमें सीमित और राज्यतन्त्रसे ही सुरक्षित रहती है। राज्यतन्त्र मनुष्यसमाजके साथ साथ चलता है। राज्यतन्त्रहीन समाज मनुष्यसमाज कहलानेका अधिकारी नहीं होता। राज्यतन्त्रको न मानने या भंग करनेवाला, नीतिहीन कहाता है। समाजसे बाहर चलाजाना या समा. जको अस्वीकार कर देना ही नीतिहीनताका अर्थ है। राज्यतन्त्र ने ही नीतिको जन्म दिया है। पहले समाज बना पीछेसे नीति बनी। समाज और राजमें कोई भी भेद नहीं। नोतिने समाज नहीं बनाया किन्तु समाज अर्थात् राज्यतन्त्र ने ही नीति बनाई। मनुष्योंका शान्ति के बंधनमें रहने लगना ही 'समाज' कहाता है। समाजबद्ध रहना मनुष्यको सामाजिक स्थिति है। अपने इस स्वभाव से समाजबद्ध होकर समाजसंगठनको सुरक्षित रखने अर्थात् समाजमें शान्तिका राज्य सुप्रतिष्ठित रखने की आवश्यकताने ही नीतिको जन्म दिया है । समाजबद्ध तो पशु भी रहता है । किन्तु पशुओंमें नीति नामकी वस्तु नहीं होती। नीतमत्ता मानवसमाजकी ही विशेषता है। राज्यव्यवस्था नीतिसम्पस हो तो उससे समाजमें नीति. मत्ताको जन्म देने तथा फलने फूलने का अवसर मिलजाता है। राज्यसंस्थाके नीतिसंपन्न होनेपर ही देश में नीति पालीजाती है। राज्यव्यवस्थासे नीतिके