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चाणक्यसूत्राणि
गुणिगणगणनारम्भे न पतति कठिनी ससंभ्रमाद्यस्य । तेनाम्बा यदि सुतिनी वद वन्ध्या कीदृशी भवति ।
(विष्णुशर्मा ) गुणियों की गणना भारम्भ होनेपर जिस पुत्रके लिये ज्ञानि-समाजकी सापर्य, सगौरव अंगुली नहीं उठती, उस पुत्रसे भी यदि माता पुत्रवाली कहलाती हों तो बताओ वन्ध्या कैसी होती है ? सृष्टिपरम्पराकी मानवको दी हुई दाम्पत्यदीक्षा सुयोग्य सन्तानोत्पादनके लिये सुसंयत गृहस्थाश्रम बितानेसे ही सफल होती है। गर्भधारणी बन जाना मात मातत्व नहीं है। किन्तु भूलोंको अवतीर्ण सन्तानका उचित लालनपालन करके उसे वंशका मख उज्ज्वल करनेवाला बनाना ही माता नामको सार्थक करनेवाला मातृत्व धर्म है । भयोग्य गर्भको धारण करना मातृत्वका कलंक है ।
तीर्थसमवाये पुत्रवतीमनुगच्छेत् ।। ३९०॥ पाठान्तर- तीर्थसमवाये जीवत्पुत्रां गच्छेत् । पाठान्तर- तीर्थसमवाये पुत्रसुतामधिगच्छेत् ।
(ब्रह्मचर्यविनाशकी स्थिति) सतीर्थाऽभिगमनाद् ब्रह्मचर्य नश्यति ।।३९१॥ एक गुरूसे पढनेवाले विद्यार्थी विद्यार्थिनीका निकट संपर्क ब्रह्मचर्यका विनाशक है।
विवरण- 'सतीर्थ्यास्त्वेकगुरवः' एक गुरूसे विद्याध्ययन करनेवाले परस्परमें सतीर्थ्य कहाते हैं । सतीर्थ्य लोग एक गुरूकी सन्तान है । 'वंशो द्विधा विद्यया जन्मना च' वंश या कुल विद्यावंश तथा जन्मवंशके भेदसे दो प्रकारका होता है। एक गुरूले विद्याध्ययन करने वाले बालक बालिका. भोंका परस्पर भ्राता-भगिनीका संबंध होता है । सतीर्य लोग गुरुवंशकी सहोदर सन्तति होते हैं । इनका संबन्ध जन्मज सहोदर सहोदराके संबन्ध से न्यून पवित्र नहीं होता। ये परस्पर गुरुभाई या गुरुभगिनी कहाते हैं ।