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शरीर उसका एक साधन
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पेट-पालन और इन्द्रिय लालनकी विद्यामें लगा रहता है और समाजविरोधी कार्य करने में धृणा नहीं करता। उसके समस्त गुण देह-रक्षामें ही व्यय होते रहते हैं। पाठक सोचे कि देह-रक्षा तो पश, पक्षी, कीट, पतंग, कीडे, मकोडे तक सबकी हो ही रही है । उतना ही यदि मनुष्य भी कर रहा है तो उसमें इसकी अपशुसुलभ मानवीय प्रतिभाका क्या उपयोग हुला ? मानवीय प्रतिभाका उपयोग तो उस विश्वव्यापीका देहातीत सत्यमयी अवस्थाका दिव्य भानन्द प्राप्त कर लेने में है जिसका मानन्द मनुष्येतर कोई भी प्राणी कदापि नहीं ले सकता।
भोजनाच्छादने चिन्ता प्रवला प्राकृते जने । साधारण मानव पेट पालने की ही चिन्ता रखता है । उसे मानसिक उदात्तता पाने की कभी चिन्ता नहीं होती।
शरीर मानव नहीं वह उसका एक साधन ) कृमिशकुन्मत्रभाजनं शरीरं पुण्यपापजन्महेतुः॥५६७॥ कृमि, विष्ठा तथा मूत्रका पात्र यह शरीर पुण्य या पापके अर्जनका कारण बनता है ।
विवरण- कृमि, विष्टा तथा मूत्र पात्र शरीर लोगोंको अपना मोही बनाकर उन्हें पुण्य पापका भागी बना देता है। मूढ मानव शरीरको 'आपा' मानने को भूल करता है। कृमि, विष्टा तथा मूत्रका भाजन यह शरीर मनुष्य का स्वरूप नहीं है । उसका यह पांच भौतिक देह निश्चय ही मनुष्य नहीं है । यह तो उसे जीवन-याशाके साधन रथ के रूप में कुछ दिनोंके लिये तथा केवल इसका सदुपयोग करने के लिये मिला है । यह तो उसका यात्रागृह है। मनुष्य अपने अज्ञान से अपने इस यात्रागृह में मम. भावसे आसक्त हो गया है। उसकी यह देहासकि ही उसका पाप है। वह चाहे तो इस देहका सदुपयोग भी कर सकता है । देह में मनुष्य की अना. सक्ति ही उसका पुण्य है। कृमि, विष्टा तथा मूत्रका पात्र यह क्षणभंगुर देव