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प्रसंगोचित आलोचना
सिकन्दरकी सहायताकी कल्पना त्यागते ही उसने अब तक जिस सिक. न्दरको अपनी रक्षा ( शरण ) में ले रक्खा था उसे हटा दिया और तब सिकन्दरको उसके देशसे बाहर निकल जाना पड़ा। इन राजनैतिक दाव. पंचोंमें सिकन्दरको जिसने भारतमें अपने मनन्त शत्रु बना लिये थे फिर अनेक झल्लाये हुए घातक शत्रुभोंके मध्यमें निराश्रित स्थितिमें चला जाना पडा । ज्योंही सिकन्दर उसके आश्रयसे विच्छिन्न हुआ त्योंही चाणक्यके पूर्वनिर्दिष्ट कार्यक्रमके अनुसार उसपर उसका विद्रोह करनेपर तुले हुए गणराज्यों की ओरसे भयंकर मार पडनी प्रारंभ हो गई । सिकन्दरको स्वयं ग्यक्तिगत रूपमें भी मल्लोसे युद्ध के समय अच्छी मार खानी पड़ी और मरनेसे बाल बाल बच पाया। शरीर घावोंसे इतना छिद गया था कि जीवित रहना माश्चर्य की बात मानी गई थी। अपनी हतोत्साह सेनाको उत्साहित करने के लिये कई बार अपने जीवनको संकट में डालना पड़ा।
घटनाचक्र इस प्रकार घूमा कि चन्द्र गुप्तने पूर्व षड्यन्त्र के अनुसार पहले तो सिकन्दरकी सेनामें फूट पैदा करके उसकी सेनामें मगधपर आक्रमणके सम्बन्धमे ही विद्रोह पैदा करा डाला था। उसके पश्चात् उसपर चारों ओरसे पाक्रमण करवाने प्रारंभ कर दिये। उसने अपनी राजनैतिक प्रति. भासे सिकन्दरके लिये ऐसी विषम परिस्थिति पैदा कर डाली कि उसे विश्व सम्राट बनने का सपना तो मध्य में छोड ही देना पडा, साथ ही उसके सामने भारतसे अपनी जान चुराकर भाग निकलने का प्रश्न मुख्यरूप लेकर उपस्थित हो गया । चन्द्रगुप्त ने अपनी तथा अपने मित्रोंकी विद्रोही प्रबल सेनामोंकी नियुक्तिसे सिकन्दरका भारतसे लौटने का वह मार्ग जिससे वह भारत विजय के लिये गर्व के साथ भाया था, अगम्य बना दिया। उस मार्गके वे अधि. वासी जिन्हें पहले सिकन्दरने अपने अत्याचारोंका आखेट बनाया था उसकी जानके गाहक बन गये थे और कठोर प्रतिहिंसाका अवसर दृढ रहे थे । पर्वतकके आश्रयसे विच्छिन्न होते ही सिकन्दरकी भारतमें वह गति हो गई थी जो पराये गाँव में जा फँले निरुपाय कुत्ते की हो जाती है।