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चाणक्यसूत्राणि
विशारद लोग तो यहांतक कहते हैं कि देशमें चोरी डाकोंका नामतक शेष नहीं था । लोग चोरों तथा डाकुओं को भूल गये थे। लोग घरोंमें तालेतक लगाने की मावश्यकता नहीं मानते थे । ऐसी परिस्थिति में यदि कभी चोरी जैसी अस्वाभाविक घटना हो जाती थी तो राज्यव्यवस्थाको ही उस चोरीका अपराधी माना जाता था। गोतमधर्म सूत्रोंमें लिखा है कि क्षतिग्रस्त व्यक्तिकी हानि राजकोषसे पूरी की जाय ।
उस समय जो प्रजासे राज कर लिया जाता था वह राजाके वेतनके रूपमें होता था । वह आधुनिक ढंगका प्रजाके जीवनका वीमा था। यदि राज्यव्यवस्था किसीके अपहारक लुण्ठनकारी या धातकका पता लगाने में असफल रहती थी तो वह पाप राज्यव्यवस्थाको अपने सिर लेना पड़ता था और प्रजाकी धन, जन, हानि राजकोषसे भरनी पडती थी। बताहये शासन विभागका इतना महान उत्तरदायित्व होनेपर अन्याय अपरिशोधित कैसे रह सकता था?
चन्द्रगुप्त इन्हीं सब प्रबन्ध सम्बन्धी विशेषताओंके कारण अपने समयके नहीं अपने इधर उधर दो तीन सहस्त्रवर्ष तकके राजामों में सबसे विलक्षण ऐतिहासिक पुरुष था। उसके पास कोई मानुवंशिक बडा राज्य नहीं था। वह किसी साम्राज्यका उत्तराधिकारी नहीं था। वह तो साम्राज्यका निर्माता था। उसने अपने बाहुबलसे केवल चौवीस वर्षमें इतने विशाल साम्राज्यका निर्माण किया और लगभग चौवीस वर्षतक उसपर निष्कंटक शासन किया । उसने अपनी युवावस्थामें ही सम्राटपद पा लिया था।
सुविश्रब्धैरंगैः पथिषु विषमेष्वप्यचलता चिरं धुर्येणोढा गुरुरापि भुवो यास्य गुरुणा धुरं तामेवोच्चैनववयसि वोढुं व्यवसितो मनस्वी दम्यत्वान् स्खलात न तु दुःखं वहति च ।
अंक ३-३ ( मुद्राराक्षस )