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चन्द्रगुप्त नंद वंशका नहीं था
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इनके प्रौढ गुरु चाणक्यने जो गुरुभार संभाल रक्खा था उसे ये अपने नवयौवनमें ही बडी सुन्दरतासे संभाल रहे हैं और विशेषता यह है कि कभी पथच्युत तथा खिन्न नहीं होते । सिकन्दरकी विजयके समय तो ये शैशव और यौवनके मध्य में थे । मगधविजयके समय भी युवा ही थे। मगधविजयके पश्चात् चन्द्रगुप्तने भारतके अन्य बहुतसे भागोंपर भी विजय पा ली थी। उनसे युद्धस्थलसे अलग नहीं रहा जाता था। ये अपने हाथी. पर बैठकर सेनाके अग्रभागमें रहकर युद्ध किया करते थे। वे अपनी वीरता तथा साहसके कारण अपनी युवावस्थासे भी पहले पहले तो सिकन्दरपर फिर सेल्यूकसपर विजय पाने के कारण न केवल भारत तथा पंजाबकी वीर जातियोंपर प्रत्युत अपने साम्राज्यान्तर्गत परशियन यवन तथा मध्य एशियाकी अन्य वीर जातियों पर भी अपना पूर्ण प्रभाव स्थापित करनेमें समर्थ हुये थे। वे केवल विजेता ही नहीं प्रत्युत एक सफल शासक भी थे।
राशि धर्मणि धर्मिष्ठाः पापे पापाः समे समाः।
राजानमनुवर्तन्त यथा राजा तथा प्रजाः ।। (मनु) राजसिंहासनारूढ मादर्श नागरिक चन्द्रगुप्तके श्रेष्ठ चरित्रका उदाहरण प्रजामें पूरा पूरा प्रतिबिम्बित हुमा था। चन्द्रगुप्तके वरेण्य राजचरित्रका प्रजापर इतना सुन्दर प्रभाव पडा था कि प्रजा भी अपने राजाका चारित्रिक उदाहरण देख देख कर अपने व्यक्तिगत कल्याणको समाज कल्याणमें विलीन करना सीख गई थी और मुक्तहस्त होकर अपनी धनजन बुद्धिशक्तिको सार्वजनिक कल्याणमें समर्पित कर देने में अपनेको कृतार्थ मानने लगी थी। चन्द्रगुप्त को अपने साम्राज्य विस्तारमें जितनी बडी सहायता अपनी चारि. त्रिक श्रेष्ठतासे मिली थी उतनी और किसी सेना मादिसे नहीं। यह सर्वथा सत्य है कि यदि राजा उत्साही, कर्मण्य, बुद्धिमान तथा समाजसेवक हो तो मनुकरणमार्गी प्रजा अस जैसी बने विना नहीं रह सकती। 'स्वामिसंपत् प्रकृतिसंपदं करोति ' ( चाणक्यसूत्र १२)। इसके विपरीत यदि राजा अनुत्साही, अकर्मण्य, निर्बुद्धि और भात्मम्भरि हो तो अनुकरणमार्गी
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