Book Title: Chanakya Sutrani
Author(s): Ramavatar Vidyabhaskar
Publisher: Swadhyaya Mandal Pardi

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Page 661
________________ चाणक्यसूत्राणि अविख्यात राष्ट्रीय चोर होते हैं। जब इस प्रकार के संगठन राज्यसत्तामें हाथ डालते हैं तब इन लोगोंका उद्देश्य राष्ट्र में स्वेच्छाचार कर परवाना पा लेना तथा ठसे बढाते चले जाना होता है । इसके विपरीत समाजद्वेषिणी भोगाकांक्षाको मिटा डालने के लिये बननेवाले, समाजकी सुखशान्तिमें ही अपनी व्यक्तिगत सुखशान्तिको विलीन कर डालनेवाले, संयमके सर्वकल्या. णकारी मार्ग पर चलनेवाले संगठन, समाजको शक्तिमान बनानेवाले होते हैं और सदा ही शान्तिकी उपासना करते रहते हैं । इस प्रकारके संगठन भोगवादी स्वेच्छाचारके अत्यन्त विरोधी होते हैं। वे मानवकी भोगाकां. भाको निवृत्ति के मार्गपर ले चलना चाहते हैं । और मानवको भोगाकांक्षाका भी समाज कल्याणमें उपयोग कर लेना चाहते हैं । सच्चे मंगठन वे होंगे जो समाजमें सुखशान्ति बरसाने में अपना संपूर्ण बल लगा देते हैं। वे चाणक्य प्रतिपादी त्रिवर्ग ( धर्म, अर्थ, काम ) के उपासक समाज में से स्वेच्छाचारको हटाकर न्याय राज्य की स्थापना कर देते हैं। त्रिवर्गके संबन्धमें चाणक्य के निम्न गंभीर विचार है कि सुखका मूल धर्म है । मुख धर्मसे ही उत्पन्न होता है । अधर्मसे उत्पन्न होनेवाला सुख सुखाभास है। अधर्मसे सुख चाहना मनुष्य की बुद्धिका प्रमाद है और दुःखोंको नौतना है । दूसरे शब्दों में दुःखकी अत्यन्त निवृत्ति ही सुख है । दुःखकी अत्यन्त निवृत्ति रूपी सुख ही मानव जीवन में पाने योग्य स्थिति या मानव जीवन का लक्ष्य है। धर्मका मूल अर्थ है । धर्म अर्थ से उत्पन्न होता है । सदुपायों से अर्जित मर्थ ही अर्थ है । सदुपायोंसे अर्जित अर्थ ही धर्मका उत्पादन कर सकता है । असदुपायोंसे लर्जित धन मनुष्य जीवन के लिये महान् अनर्थ बन जाता है । असदुपायोंसे उपार्जित धनसे धोत्पत्तिको कोई आशा नहीं है । धोत्पादक अर्थ धर्मानुकूल राज्यव्यवस्था होनेसे पैदा होता है । 'राजानं प्रथमं विन्धात्ततो भायां ततो धनम् ' यदि राज्यव्यवस्था धर्मानुकूल न हो तो देशकी वह आर्थिक व्यवस्था जिससे समाजकी धर्मानुकूल जीवनयात्रा चल सकती है, नष्टभ्रष्ट हो जाती है ।

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