Book Title: Chanakya Sutrani
Author(s): Ramavatar Vidyabhaskar
Publisher: Swadhyaya Mandal Pardi

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Page 662
________________ अनार्यवादोंकी आलोचना ६३५ राज्यका मूल इन्द्रिय विजय है। व्यक्तिगत भोगेच्छापर पूर्ण प्रभुत्व ही राजा या राज्याधिकारियों की राज्यसंस्था चलानेकी मुख्य योग्यता है। राज्यका लाभ तथा रक्षा दोनों ही काम इन्द्रियविजयसे होते हैं। दूसरे शब्दोंमें सच्चे सुखकी जो मन्तिम साधना है वही तो इन्द्रियविजय है। मनुष्य इन्द्रियावजय कर लेने पर अपने मनोराज्यका सम्राट बन जाता है। कामको मनसिज कहा जाता है । काम मनोराज्यसे उत्पन्न होता है । कामपर्तिके साधन सुखदायी, दुःखदायी भेदसे दो प्रकार के होते हैं । कामप्राप्तिके सदिच्छा तथा दुरिच्छा ये दो साधन हैं । संदिच्छा कामपूर्तिका त्रिवर्गानुसारी सुखद साधन है । इन्द्रियविजय पा लेने पर उत्पन्न होनेवाली इच्छा ही शास्त्रीय काम है । इन्द्रियों की दासता करके अर्थोपार्जन करना दुरिच्छा है। इन्द्रियोंकी दासता करके भोगोपार्जन करना शास्त्रविगर्हित कामका रूप है। सदुपार्योंसे उपार्जित धन सदिच्छाको पूरी करने का साधन बन जाता या बन सकता है। सदुपायोंसे उपार्जित धनका सत्य के लिये सदुपयोग होना अनि. वार्य होता है । धनका सत्य के लिये सदुपयोग हो मानवधर्म है। ___ मनुष्य का जो वांछनीय सुख है वह उसे मानवधर्म पा लेने से ही मिलता है। यही मनुष्यसमाजका सामाजिक भादर्श है। मनुष्य समाज में इस मञ्च मादर्शको प्रतिष्ठित रखना ही मनुष्यमात्रका व्यक्तिगत धर्म है। मनुष्यका यह व्यक्तिगत धर्म समाजको सामूहिक सुख देने वाले धर्म से अलग कोई धर्म नहीं है। मनुष्य समाजका धर्म के मार्गपर मारूढ हो जाना ही त्रिवर्गकी प्राप्ति है। त्रिवर्ग प्राप्ति ही मोक्ष है। यों भी कह सकते हैं कि निवर्ग प्राप्ति ही मोक्षरूपमें परिणत हो जाती है। दुःख रहित स्थितिका नाम ही तो मोक्ष है । इन्द्रियोंके बन्धनसे अतीत रहना ही जीवन्मुक्तिकी दुःखरहित स्थिति या मोक्षलाभ है। समाजका जो उच्चतम आदर्श है वही तो मोक्ष है । पाठक जाने कि सपूर्ण समाजको इस उच्चतम भादर्श पर ले चलना ही तो मार्य राजनीति है। मनुष्य भोगलोलुप होकर जीवन न बिताये किन्तु अखण्ड सुखको अपनी मुट्ठी में करके भोगबन्धनको त्यागकर जीवन विताये अर्थात् लोगों के साथ व्यवहार करे । इसोको मनुष्यका अपने व्यक्तिगत कल्याणको समाज-कल्याणमें विलीन कर देना भी कहते हैं । यही उदार

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