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आर्थिक समाजरचनाके दाष
करना नहीं जानता, जान लो कि उस राष्ट्रमें राष्ट्रसेवाका स्थान सूना पडा हुआ है । जान लो कि वह राष्ट्र असुरोंकी स्वेच्छाचारिताकी क्रीडाभूमि बन चुका है। आजके भारतवासीको चाणक्यसे राष्ट्रसेवाका यही मद्दत्वपूर्ण पाठ पढना है ।
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अपने समाज से अलग मनुष्यका कोई मूल्य या अस्तित्व नहीं है । मनुका जो समाज है वही तो उसका राष्ट्र है। राष्ट्र दो राज्यसंस्थाका कर्णधार है । राष्ट्र ही राजाकी कल्पना निर्माण और नियुक्ति करता है। राजाकी भ्रान्ति तथा दुष्प्रवृत्तियोंको रोकना राष्ट्ररूपी राज्यसंस्थाके कर्णवारका ही काम है | यदि राष्ट्र अपनी राज्यसंस्था रूपी नौकाको लेने में वोडासा भी प्रमाद करेगा तो इस नौकाका डूब जाना क्या अपने सब यात्रियों को डूबनेके लिये विवश करना निश्चित हो जायगा । इसलिये कौटल्यने रात्रसम्मत जितेन्द्रिय राजाको समग्र राष्ट्रका प्रतिनिधित्व करनेका अधिकार दिया है और उसीके कंधों पर सम्पूर्ण राष्ट्रका नैतिक तथा वैज्ञानिक दोनों प्रकारका उत्तरदायित्व सौंश है | उनका यह सुदृढ विश्वास था कि जैसे संपूर्ण प्राणियों के पदचिन्ह हाथीके पैर में समा जाते हैं इसी प्रकार संसारके समस्त धर्म राजधर्मके उदर में समा जाते हैं । राजधर्म समस्त धर्मोका संरक्षक है । जिस देशका राजधर्म सुरक्षित रहता है उसीकी समस्त प्रजा धार्मिक रह सकती है | यदि राजधर्म सुरक्षित या व्यवस्थित नहीं रहता यदि वह्न लूला, लंगडा, अंधा, बहरा बनकर रहता है तो राजचरित्रका अनुकरण करनेवाली प्रजा धर्ममार्गपर नहीं रह सकती ।
चाणक्यको जो भारत अखण्ड राष्ट्रका निर्माण करने की प्रेरणा मिली थी वह एक तो भारतपर बाह्यशत्रुओंके आक्रमणको हटाने, दूसरे उस आक्रमणमें आन्तरिक देशद्रोही शत्रुओंका सहयोग मिलना असंभव बना देने की आवश्यकता से मिली थी ।
भारतपर विदेशी आक्रमण होते ही भारतकी राजनैतिक रुग्णावस्था राष्ट्रवैद्य चाणक्यसे छिपी नहीं रह सकी । उन्होंने स्पष्ट देख लिया कि