________________
५९८
चाणक्यसूत्राणि
लिये विवश करता है । राष्ट्रमें न्यायका बलिदान हो जानेसे राष्ट्रका विनाश अवश्यंभावी हो जाता है । क्योंकि न्यायकी रक्षा ही राज्यकी रक्षा है इस लिये न्यायकी रक्षा ही राजा और राजसत्ताका सार है । भलेबुरे की पहचान करना ही न्याय है । शासक शासित दोनोंके कल्याणका एक होना ही राज्य संस्थाका न्याय है । कौटलीय अर्थशास्त्र न्यायके शासनको ही सत्यका प्रतीक मानता और उसकी रक्षाको ही राजधर्म बताता है । राज्यसंस्था प्रजाके कल्याण के लिये ऐसे नियम प्रचलित करे जो समस्त विश्व के माननीय श्रद्धेय विवेकका पूरा प्रतिनिधित्व करते हों । राजनियम बनानेवालों में न तो भ्रम हो न प्रमाद हो और न किसीका अधिकार छीननेकी लोभ या द्वेषी दुर्बुद्धि हो । भ्रमिष्ठ, प्रमादी, स्वार्थी, विप्रलिप्सु, अनुभवहीन लोग राजनियमों के निर्माता तथा निर्वाहक न बनने पांय । राजनियम स्पष्ट भाषा में हों ।
यद्यपि कौटल्यने राज्यशासनमें राजाका एकाधिकार स्वीकार किया है परन्तु उन्होंने राजाको जनताका सेवक बननेके बन्धनमें रखकर सिद्ध कर दिया है कि राजा राज्यपर जनताकी प्रभुता स्वीकार करे, राष्ट्रसें जनता के ही शासनको प्रभावशाली बनाकर रक्खे और अपने व्यक्तित्वको प्रजाकी सदिच्छार्मो में बिलोन कर डाले । अपने व्यक्तित्वको जनमत में विलोन करके राज्यशासन चलाना ही कौटल्य की राज्यसंस्था या राजाका वास्तविक स्वरूप है । इस रूपसे कौटल्यका राजा तो वास्तव में जनता ही है । जनताका अस न्तोषभाजन हो जाना तो राजाकी अयोग्यता है ।
शत्रुदमन ही कौटल्य के न्यायका स्वरूप हैं । राजा जितेन्द्रिय होनेपर ही न्यायनिष्ठ रह कर शत्रुदमन कर सकता है। दूसरे शब्दों में काम, क्रोध आदि आन्तरिक शत्रुओं पर विजय पाना ही राजाको न्यायपरायण बनानेवाली योग्यता है । न्यायी राजा शत्रुदमनके लिये जो कुछ काम करता है वही न्याय कहलाने लगता है । प्रजापालन ही राजाका राजधर्म है । प्रजापालनकी विद्या ही राजाकी दण्डनीति है । जब राजाको प्रजापालनके लिये शत्रुकी