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चाणक्यसूत्राणि
अवसर हाथ माया था कि उसे तुरन्त हथकडी पहनाकर नष्ट कर डालना चाहिये था । परन्तु सब यह तब होता जब पर्वतेश्वरको अपने देशकी कोई चिन्ता होती । उसे तो केवल अपनी चिन्ता थी। उसने भात्मसमर्पणके लिए विवश हो जानेवाले पर्वतकको शिकारीको हाथ लगे खूखार कुत्ते के समान अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाका साधन बना लेना चाहा और उसके सहयोगसे भारतीय राजामों को पराजित करके भारतका सबसे बडा प्रतापी राजा बनने का मनोरथ ठान लिया।
यदि वह देशप्रेमी होता तो ऐसा कभी न करता । इस प्रकारको चिन्ता उसका राजनैतिक दिवालियापन था। यदि वह देशप्रेमी होता तो उसे सिकन्दरको उसी समय नष्ट कर डालना चाहिये था और उस आततायीका मुंड काटकर भारतमाताके चरणों में भेंट चढाना चाहिये था। कुछ लेख. कोका कहना है कि पर्वतेश्वरने शत्रुको क्षमा करने की क्षात्र परम्परा के अनु. पार संधिप्रार्थीपर प्रहार नहीं किया। परन्तु यह बात नहीं थी। उसकी देशद्रोही राज्यलोलुप मनोवृत्तिने उसे अँधा बन! डाला था और वह अपनी फूटी आँखोंसे सिकन्दरको मिटा डालने के सर्वोत्तम अघसरको नहीं पहचान सका। उस समय वह देशकी ओरसे न सोचकर अपने व्यक्तित्वकी रष्टिसे सोचकर भ्रान्त निर्णय कर बैठा।
सिकन्दरने तो संधिको आत्मरक्षाका साधन मात्र बनाया था। वह तो आततायी भेडिये की भूख लेकर अपने देशसे समराभियान के लिये चला था । झेलम के तट पर अपने भाग्य का पासा पलटता देखकर संधिप्रार्थना तो उसकी मरमरक्षाकी एक चाल थी। उसके मनमें तो विश्वसम्राट बनने की महत्वाकांक्षा पहले से ही विद्यमान थी जो अब भी नहीं मिटी थी। सिकन्दरने पर्वतकको अच्छा धोका दिया। उसने भारतको जीतकर अपनी विश्वसम्राट बनने की महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिये उस जैसे शक्तिशालको अपना भारतीय साधन बना लेनेका निश्चय कर लिया। उसको भारतका सम्राट् बनानेका लालच देकर ठगा और संधि पक्की कर ली।