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चाणक्यसूत्राणि
पुरुषसमाज स्वयं भी पथभ्रष्ट होकर भ्रष्टा स्त्रियोंके हाथों की कठपुतली बने विना नहीं रहेगा।
मनुष्यसमाजका प्राचीन तथा अर्वाचीन इतिहास या तो स्त्रीलोभ या स्त्रीप्रेरणाके कारण उत्पन्न हुई राष्ट्रीय, सामाजिक, पारिवारिक तथा व्यक्तिगत विनाशों या कलहों घटनाओंसे भरा पड़ा है। इसका एकमात्र प्रतिकार यही है कि मनुष्यसमाजमें ज्ञानका प्रचार किया जाय और उसे व्यक्तिगत कल्याणको सामाजिक कल्याणमें विलीन करना सिखा दिया जाय । भ्यक्तिगत कल्याणको सामाजिक कल्याणमें विलोन कर देना हो मनुष्यताका संरक्षक आदर्श है।
न च स्त्रीणां पुरुषपरीक्षा ।। ४७८॥
स्त्रीणां मनः क्षणिकम् ॥४७९॥ पाठान्तर-स्त्रीणां हि मनः क्षणिकमेकस्मिन्न तिष्ठति।
(विचारधर्मा लोगोंका स्त्रियोंसे कर्तव्यमात्रका संबन्ध ) अशुभद्वेषिणः स्त्रीषु न प्रसक्ताः (प्रसक्तिः) ॥४८०॥ अशुभद्वेषी अर्थात् समाजहितमें अपना हित समझनेवाले लोग स्त्रैण न बनें।
विवरण- वे स्त्रियों में मासक्त न होकर उनके साथ केवल कर्तव्यका संबन्ध रक्खें । स्त्री-प्रसक्तिसे बचे रहनेसे मनुष्यता, यश तथा सुप्रजा प्राप्त होती है और बुद्धि प्रखर हो जाती है। अत्यासक्तिसे स्त्रीपुरुष दोनों पतित होजाते हैं। पाठान्तर- अशुभवेशाः स्त्रीषु न प्रशस्ताः ।
(आत्मवेत्ता ही वेदज्ञ हैं)
यज्ञफलज्ञास्त्रिवेदविदः ॥४८१॥ त्रिवेदविद अर्थात् वेदश वे लोग हैं जो समस्त यशोंके फल ( फलस्वरूप परमेश्वर, औपनिषद् पुरुष या आत्मस्वरूप) को ठीक-ठीक पहचान चुके हैं।