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चाणक्यसूत्राणि
दर्शनकी स्थिति है। दान किसीपर कृपा नहीं है, दान तो अपना ही कल्याण या अपना ही साविक स्वार्थ है। दान अक्षय निधि है। सत्य के हाथों भारमदान दानका सच्चा रूप है।
(शत्रुको पछाडनेका उपाय ) ( अधिकसूत्र) शत्ररपि प्रमादी लोभात । लोभमें आ जानेपर शत्रु भी अपने शत्रुतारूपी लक्ष्य में प्रमाद कर लेता या अपने लक्ष्यसे भ्रष्ट होजाता है।
विवरण--हमारा शत्र हमें मिटाना चाहता है। वह हमारा अनिष्ट करनेपर तुला होता है। उसे इस लक्ष्यसे भ्रष्ट करने के भी कुछ उपाय होते हैं । ऐसे समय उसे ऐसा भारी लोभ देना चाहिये जिस लोभपर विजय पाना उसके वश में न हो । लोभ मनुष्यका निर्बल स्थान ( मर्मस्थल ) है। निर्बल स्थानपर अभ्यर्थ आघात करनेसे शत्रको विनष्ट करना सुखकर होता है । लोभ आया तो मनुष्यकी संग्राम-प्रवृत्ति-को मर गया समझो!
( भजितेन्द्रियतासे पराजय निश्चित )
शर्मित्रवत प्रतिभाति ॥५१६ ।। बुद्धिभ्रंश होजानेपर शत्रु भी मित्र दिखाई देने लगता है। विवरण- लोभ मा जानेपर मनुष्यको शत्रु भी विश्वासपात्र हितकारी मित्र प्रतीत होने लगता है । लोभवश होजाना ही बुद्धि भ्रंशता है। लोभ ही प्रलोभन उपस्थित करता है । शत्रु भी प्रलोभनों के द्वारा मित्रका वश बनाकर ठगने का प्रयत्न करता है । लोभके वशमें न माना जितेन्द्रिय लोगोंका काम है। जितेन्द्रिय होकर ही संग्रामविजयी बनना सम्भव है। इन्द्रियों के दासके लिये वीरता नामकी कोई स्थिति नहीं होती। जितेन्द्रिय लोग ही रणक्षेत्रमें वीरताका सम्मान पाने तथा सुनिश्चित विजय लाभ करने के अधिकारी होते हैं।