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चाणक्यसूत्राणि
विवरण - उसे जैसे अपनी मनुष्यतापर आक्रमण होना नहीं रुचता, इसी प्रकार उसे दूसरेकी मनुष्यतापर आक्रमण होना भी सह्य नहीं होता । साधु मनुष्य दूसरे से अपने लिये जिस व्यवहारकी आशा करता है दूसरोंको भी अपने से वैसा व्यवहार पानेकी आशा करने देता है । इसीको 'न्यायबुद्धि' कहते हैं । न्यायबुद्धि ही मनुष्यकी मनुष्यता है । मानवदेह धारण करके मनुष्यताका प्रेमी होना ही 'साधुख ' है । मनुष्य अपनी मनुष्यताको तिलांजलि देकर समाजकी शान्ति हरण करनेवाला मनुष्यता द्वेषी असुर बन जाता है | मनुष्यसमाजमें अपने कर्तव्यक्षेत्र में जहाँ कहीं आसुरिकता दीखे, उसका विरोध करके उसमें मनुष्यतारूपी शान्तिको सुरक्षित रखना ही 'साधुता ' है ।
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जिस समाज में गुणी लोगोंका निरादर तथा गुणोंके शत्रुओंका सम्मान होता है उस पतित समाजकी राजशक्ति पतितोंके हाथोंमें जा चुकी होती हैं । समाजकी पतितावस्था इस बातका पूर्ण प्रमाण है कि राजशक्ति असु
के हाथों में है और वह समाजका नैतिक उत्थान रोक रही है, गुणियों के अस्तित्वको न सहकर उन्हें मिटा रही है और समाजके नैतिक उत्थानकी शत्रु बनकर प्रजाको अनैतिक बना रही है । ऐसे समाज में गुणी, ज्ञानी, समाजहितैषी लोगोंका संगठन न होना राजशक्तिके समाजद्रोही षड्यन्त्रोंका परिचायक है । ऐसे राष्ट्रीय संकट के समय में सच्चे गुणी समाजसेवकों को
के साथ संगठित होनेका प्रयत्न करना अत्यावश्यक है ।
समाजकी पतितावस्था में ही सेवकोंकी आवश्यकता होती है। सच्चे गुणियों का इस कर्तव्यबुद्धिसे रहित होना समाजका दुर्भाग्य है । इस दुर्भाग्य का एकमात्र कारण समाजके विज्ञ लोगोंका आत्मशक्तिमें अविश्वास तथा कपट आध्यात्मिकतासे मिलनेवाली काल्पनिक शान्तिका मोह है । ये लोग नैक नामकी अलीक स्थितिको अपनाकर कर्तव्यभ्रष्ट होकर कल्पना के स्वर्ग में आत्मप्रवंचना करते रहते हैं । वास्तविकताको समझनेवाले अत्यल्पसंख्यक सच्चे गुणियोंकी कर्तव्यनिष्ठापर ही उस समय के समाजके उत्थानका