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सत्पुरुषका लक्षण
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किये बिना अपना अभीष्ट सुख कभी नहीं पा सकता। यह सोचने की बात है कि मनुष्यताके हनन और सुखका परस्पर क्या सम्बन्ध है ? अपनी मनुष्यताका हनन करना ही हिंसा है। अपनी मनुष्यताको अनाहत रखना ही माहिसा है। मनुष्यता ही मनुष्यका स्वधर्म है। परपीडन से बचना इस बातका प्रमाण है कि यह मनुष्य अपनी मनुष्यताको सुरक्षित रखकर स्वधर्मनिष्ठ जीवन व्यतीत कर रहा है ।
राष्ट्र में मनुष्यतानामक धर्मको सुप्रतिष्ठित रखना राज्यसंस्थाका मुख्य उत्तरदायित्व है। यदि राज्यसंस्था अपनी नीतिमें मनुष्यताका संरक्षण कर रही हो तो राष्ट्र उसकी देखादेखी मनुष्यताका संरक्षण करनेवाली राज्य संस्था बनानेवाला बन जाता है और अहिंसारूपी धर्मको पालने लगता है । इससे राष्ट्र में राष्ट्रनिर्माणकी परम्परा सुरक्षित हो जाती है। यदि राज्यसंस्था अपनी नीतिमें मनुष्यताका संरक्षण नहीं करती तो राष्ट्र उसकी देखादखी मनुष्यताघाती राज्यसंस्थाको जन्माने तथा पालनेवाला बनकर हिंसक बन जाता है। हिंसासे राष्ट्रमें राष्ट्रद्रोहकी परम्परा बह निकलती है। हिंसाका अर्थ अपनी हिंसा और अहिंसाका अर्थ अपनो अहिंसा है। हिंसा अहिंसा दोनों परधर्म न होकर दोनों आत्मधर्म हैं।
(सत्पुरुषका लक्षण ) स्वशरीरमपि परशरीरं मन्यते साधुः ॥ ५६२ ॥ सत्पुरुष अपने शरीरको भी दूसरोंका शरीर मानता है। विवरण- वह दूसरों को भी यह अधिकार दिये रहता है कि वे उसके शरीर से उचित सेवा लेते रहें। (अधिक सूत्र ) स्वशरीर (मपि) मिव परशरीरं मन्यते साधुः।
साधु दूसरके शरीरको अपने शरीर जैसा ही मनुष्यताका प्रतिनिधि मानता है।