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आपत्कालीन कोश आवश्यक
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( आपत्कालीन कोश आवश्यक )
आपदर्थं धनं रक्षेत् ॥ ५३७ ॥ मनुष्य आकस्मिक विपत्तियोंके प्रतिकारके लिये कुछ धन संचित रक्खें।
विवरण- वह जीवनयात्रामें अपव्यय न करके जितना बचाया जा सके उतना धन अपनी या अपने राष्ट्रकी विपत्तिके दिनों के लिये सुरक्षित रक्खें । जैसे वृद्ध मातापिताको पुत्रसे असमर्थ दिनों में पालन-पोषण पानेका अधिकार है वैसे ही समाज या देशको अपने प्रत्येक व्यक्ति से अपनी श्री. वृद्धि में सहयोग पानेका पूर्णाधिकार है। इसका कारण यह है कि समाजके कल्याणमें ही मनुष्यका कल्याण है। समाजके कल्याणमें सहयोग देना मनुष्यका अपना ही कल्याण है । प्रत्येक मनुष्यके पास अपने या राष्ट्र के बुरे दिनों के लिये कुछ सुरक्षित कोष अवश्य रहना चाहिये । सत्यपर असत्यके माक्रमणका काल ' आपत्काल ' कहाता है। उस समय असत्यका विरोध करके सत्यकी रक्षा करना मनुष्यका कर्तभ्य होता है । महामारी, विपूचिका, माततायीके भाक्रमण आदि कर्तव्य के अवसरपर उदासीन रहना असत्या. वस्था है।
सत्यरक्षाका कर्तव्य मनुष्य के सामने अनेक रूप लेकर आया करता है। क्योंकि मनुष्यका देह सत्यकी सेवाका साधन है इसलिये उसका देह-धारण भी तो सत्य रक्षारूपी कर्तव्यमें ही सम्मिलित है । इस दृष्टिसे देहधारणसे संबन्ध रखनेवाले कर्तव्यों की अवहेलना करना असत्यकी दासता है। परन्तु यह ध्यान रहे कि देह-रक्षा वहांतक सत्यसेवा है जहाँतक वह सस्यानुमोदित उपायोंसे हो रही हो । असत् उपायोंसे देह-धारण करना तो भसस्यको ही सेवा है । इस रष्टिसे सत्यकी सेवा करते हुए देहको बलिदान करनेकी मावश्यकता भा खडी होनेपर उसके लिये सहर्ष प्रस्तुत हो जाना भी सत्यकी सेवामें ही सम्मिलित है। __ मनुष्यको अपने संचित धनको सत्यकी सेवामें सदुपयुक्त करनेका ही अधिकार है । धनका असत्यकी दासता करने में दुरुपयोग करना मनुष्यका