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धर्म व्यावहारिक हो
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अपराह्निकं पूर्वाह्न एव कर्तव्यम् ॥ ५४० ॥
मध्याह्नोत्तरका काम दिनके प्रथम भाग में ही कर लेना चाहिये ।
विवरण- कर्तव्यको अगले क्षणके लिये न टालकर उसी क्षण करना चाहिये । यदि मनुष्य अवश्य कर्तव्य कार्य में आलस्य करेगा और उसे फिर कभी के लिये टालेगा तो दूसरे समय के लिये दूसरे काम आ उपस्थित होंगे । तब इस टाले हुए कामके लिये कभी भी उचित समय न मिल सकनेसे यह काम हो ही न सकेगा ।
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( धर्म व्यावहारिक हो )
व्यवहारानुलोमो धर्मः ॥ ५४१ ॥
धर्मको व्यवहारमें आने योग्य या व्यवहारमें आनेवाला होना चाहिये ।
विवरण - धर्मको व्यवहारकी रुकावट न बनकर उसका संशोधक, सुधारक, सहायक तथा मार्गदर्शक बनकर रहना चाहिये । धर्मका ज्यावहारिक जीवन के साथ अभिन्न संबन्ध होना चाहिये ।
स्वधर्म ही मनुष्यके व्यवहार में प्रकट होता है । स्वधर्मका सत्यनिष्ठ मनुयके व्यवहार में प्रकट होना अनिवार्य है । सत्यनिष्ठा ही मनुष्यका स्वधर्म है । अपने व्यवहार में सत्यको प्रकट करना ही मनुष्यका स्वधर्म है ।
धर्म लोकेच्छाका बनाया नहीं होता । लोकेच्छा सदा ही अंधी ( अवि. वेकवती ) होती है । धर्मका काम तो लोकेच्छापर नियंत्रण रखकर लोकेच्छाको सत्याभिमुख प्रवाहित करना है । इसलिये मनुष्य लोकेच्छा के अनुसार न चलें | वह वे आचरण करे जिनसे मन कुमार्गसे रुके और समाजमें शान्ति तथा सुव्यवस्था रहे । जिस धर्मको व्यवहार में लाना मनुष्य-शक्तिके बाहर हो वह धर्म अव्यवहार्य धर्मके रूपमें माननीय नहीं हो सकता । व्यवहारको सन्मार्गपर रखना ही तो धर्म है । सत्यनिष्ठा ही सन्मार्ग है ।