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चाणक्यसूत्राणि
मनुष्य सारे संसारको धोका दे सकता है परन्तु अपने मनको नहीं ठग सकता । मनुष्यका मन उसके कर्मों के प्रौचित्य अनौचित्य के निर्णयका ऐसा न्यायालय है जिस न्यायालयकी आँखों में धूल नहीं झोंकी जा सकती। मनुष्यका मन उसकी प्रत्येक चेष्टा और उस चेष्टाकी प्रेरक भावनाओंसे पूर्ण परिचित रहता है।
यत्कर्म कुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः ।
तत्तद्यत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत् ॥ जिस कामको करते हुए मानव के अन्तरात्माको साविक, सन्तोष और निःस्वार्थ हर्ष हो उसे यस्नसे करे तथा संतोषहीन, साबिक, हर्षरहित, चित्त चाचल्यकारक, भीतिजनक, लजावह काम न करे ।
. ( संसारभरका साक्षी )
सर्वसाक्षीह्यात्मा ॥ ५४९॥ सत्यस्वरूप आत्मा इस सकल जगत्के या इस मानवके जीवन व्यापी समस्त चरित्रको या तो सत्य होनेका प्रमाणपत्र देकर साधुवाद देने या असत्य प्रमाणित करके धिकारनेके लिये मानव हृदयमें साक्षी अर्थात् तटस्थद्रष्टा बनकर बैठा है ।।
विवरण- बाहरवाला साक्षी चाहे सर्वत्र न मिल सके परन्तु यह आत्मारूपी विश्वव्यापी साक्षी तो सदा सर्वत्र उपस्थित रहता है ।
आत्मैव ह्यात्मनः साक्षी गतिरात्मा तथात्मनः । मावमंस्थाः स्वमात्मानं नृणां साक्षिणमुत्तमम् ॥ १॥ मन्यन्ते वै पापकृतो न कश्चित्पश्यतीह नः । तांस्तु देवाः प्रपश्यन्ति स्वस्यैवान्तरपूरुषः ॥२॥ एकोऽहमस्मीत्यात्मानं यत्त्वं कल्याण मन्यसे । नित्यं स्थितस्ते हृदये पुण्यपापेक्षिता मुनिः ॥३॥ अपना आत्मा ही अपना साक्षी तथा पनी गति है। मनुष्यको इसके अतिरिक्त मौर किसीको भी नहीं पाना है। मनुष्य ! तू मनुष्यों के सर्वोत्तम