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चाणक्यसूत्राणि
आनन्द तीनों ही मानव के स्वरूप हैं। मानव के स्वरूप में वेदशास्त्रोंका वास है | सत्य मानवहृदयवासी जीवितशास्त्र है । मनुष्यने अपने प्रमादसे इस जीवित शास्त्र से अपना संबन्ध तोड लिया है । इस जीवित शास्त्र के साथ आदान-प्रदानका संबन्ध जोडकर रखना मनुष्यका कर्तव्य है । यह संबन्ध होजानेपर अर्थात् अपने हृदयस्थ सत्यस्वरूपका प्रत्यक्ष कर लेनेपर ही मनुष्य शास्त्रज्ञ ज्ञानी बनता है । कर्तव्याकर्तव्य निर्णय करनेकी कुशलता पा जाना ही तो शास्त्रावलोकनका उद्देश्य है । ग्रन्थावलम्बी बन जाना शास्त्रावलोकनका उद्देश्य नहीं है । ग्रन्थावलम्बीको सदसद्विचार प्राप्त नहीं होता । सदसद्विचारकी योग्यता अपनी भान्तर स्वरूपभूत ज्ञानज्योतिके जगमगा उठने से ही प्राप्त होती है । मनुष्य ज्ञानी बन चुकनेके पश्चात् ही शास्त्रमें सत्यका दर्शन करने में समर्थ होता है। अज्ञानी रहते हुए शाखों के पन्नों में से अज्ञानका ही समर्थन प्राप्त होता है ।
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निरुक्तकार यास्क के शब्दोंमें ' नैतेषु ज्ञानमस्त्यनृपेर तपसो वा 'वेदों में उस मनुष्य के लिये कोई तवज्ञान नहीं है जो स्वयं वेदोंके द्वष्टा, ऋषियों जैसा तत्वदर्शी और तपस्वी नहीं है । दूसरे शब्दों में शास्त्रों में सत्यका दर्शन सब किसीको न होकर वेवल ज्ञानीको होता है । अज्ञानी अवस्था में रहते हुए शास्त्रोंमें अपने अज्ञानका ही समर्थन ढूँढना स्वाभाविक होजाता है । अज्ञानी मनुष्य शास्त्र कहलानेवाले ग्रन्थको अपने अज्ञानका समर्थक बना लेता है। सूत्र में इसीको अज्ञानीका शास्त्र से मोहग्रस्त होजाना कहा है ।
अपने में सत्यदर्शन कर चुका हुआ मोद्दातीत ज्ञानी ही श्रुति, स्मृति तथा शिष्टों के आचरणोंको अपने हृदयस्थ सत्यके शासनकी कसौटी पर कसकर इन सबकी एकता के संबंध में संदेह-रहित होकर अपने व्यावहारिक जीवन में शास्त्रको मूर्तिमान् कर देता है ।
( भूमिका स्वर्ग )
सत्संगः स्वर्गवासः ॥ ५१९ ।।
सत्संग ही स्वर्गनिवास है ।
विवरण- इस दुःख भरे संसार में सन्तसमागम ही एकमात्र सार है ।