________________
चाणक्यसूत्राणि
रोग होजाता है, इसी प्रकार धनवृद्धि से भविवेक हो जानेपर धनगर्वित मानवको हितकारी विद्यावयोवृद्ध लोग भी क्षुद्र तथा उपेक्ष्य दीखने लगते हैं, अन्याय, न्याय प्रतीत होने लगता है और अधर्म धर्म भासने लगता है। सम्पत्ति एक प्रकारका मनायुर्वैदिक रोग है । यह मनुष्य के कानोंको बहरा, वाणीको गूंगा, आँखोंको अंधा तथा गात्रयष्टिको विकृत ( ऐठीला ) बना डालता है।
बधिरयांत कर्णविवरं, वाचं मूकयति, नयनमन्धयति । विकृतयति गात्रयष्टि, सम्पद्रोगोऽयमद्भुतो राजन् ।। 'श्रियाप्त्यभीक्षां संवासो दर्पयन्मोहयेदांप' सम्पत्तिके साथ निरन्तर अविवेकपूर्ण सहवास मनुष्य में दर्प और मोह उत्पन्न कर ही डालता है। धन एक साधनमात्र है। साधन सदा अंधा होता है। वह कार्य के ही समान अकाय करने का भी साधन होता है। धनका सदुपयोग करनेवाला विवेक ही धनकी भाख है । वहीं उसे चक्षुष्मान बनाता है । धन अपने सुयोग्य संचालकके नेतृत्वमें दी शक्ति बनता है । साधन सुयोग्य नेतृत्व के अभाव में शक्ति न बनकर अशक्ति तथा हानिकारक बन जाता है । इसलिये विचारशील लोग धनपर अपना सैद्धान्तिक नियंत्रण रखते हैं। वे सिद्धान्त विरुद्ध उपार्जन करना या अवैध धनका अपने पास खाना स्वीकार नहीं
यह सच है कि धन जीवनयात्राका एक साधन है । परन्तु यह भी सच हैं कि घनान्धता मनुष्य की मनुष्यताका शत्रु है । धनान्धता दरिद्रताले भी भयंकर अति है । सिन्द्वान्तहीनता के साथ माया हुआ धन जिस घर में मा चुलता है, उस समन्त दुगुंगों को आ धुलने का निर्वाध अधिकार दे देता है। वह उस घर के समस्त मानवोचित गुणों का बहिष्कार कर देता है । वह उस घरका नैतिक रूपसे नाश किये बिना उस घरसे नहीं टलता। इसलिये जिस प्रकार अग्निकी गृहदाहकताको बचाकर उसका सदुपयोग किया जाता है, इसी प्रकार मनुष्य धनजन्य दानियों को बचाता हुना ही धनका उप. योग करें।