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आत्मप्रशंसा अकतव्य
कंवल भुला ही नहीं डाला प्रत्युत उसे राज्यसंस्थामें प्रवेशका द्वार भी बना लिया है।
अपने गले में भारमप्रशंसाका ढोल डालकर राजनीतिज्ञ बनकर, देशको धोखा देकर राज्य हथियाने की प्रवृत्ति कानूनसे निन्दनीय होना चाहिये । परन्तु जब कानन बनाने का अधिकार ही अपरिणत तथा अनुभवहीन, अमिष्ठ, प्रमादी, विप्रलिप्सु, आत्मम्भरि, प्रतारक अयोग्य लोगों के हाथों में पहुँच जाय तब देश की डूबती नौकाको इन प्रात्मश्लाघी धर्मों के हाथोंसे कौन बचाये ? जिस आत्मश्लाघाका समाज में अत्यन्त निन्दित स्थान हो, उसीको राज्य.
थाके निर्माणमें स्थान दे दना देशके साथ कितना बडा विश्वासघात है ? यह देखकर समाजको इन भास्मश्लाधी धोकेवाज राजनीतिज्ञों के लिये उचित दण्डव्यवस्था करके इनके आत्मप्रचारको कानन से रोकना चाहिये । कोई भी व्यक्ति अपनी आत्मप्रशंसाके पुल बांधकर राज्यव्यवस्थामें नहीं जा सकता चाहिये । उसमें जो कोई जाय केवल समाज की सदिच्छा भार आवश्यकतासे जाना चाहिये । जिसे समाज प्रशंसनीय पाय उसके पास अपनी ओर से जाकर राज्यसंस्थामें जाने के लिय प्रार्थना करके उसे वहां भेजे, तो राज्य. व्यवस्था में पवित्रताका बोलबाला हो ।
ऊपर स्वयं स्वगुण कीर्तनका निषध किया है । यदि कहीं किसी अपरि. वित क्षेत्र में सत्यार्थ स्वगुण-कीर्तन करना आवश्यक तथा अनिवार्य हो को अपने व्यक्तित्वको महत्व न दकर सत्यको हो महत्व देना चाहिए । मनुष्य आत्मश्लाघासे दाम्भिक तथा अभिमानी माना जाने लगता है । मनुष्यों को आत्मश्लाबोस घृणा हो जाती है । याला पुष्पगन्ध
मारक बायुके समान बुद्धिमान प्रतिष्ठित लोगो द्वारा समाज फल तब ही या समाज में प्रीति कर और स्वीकृत होता है।
अद्यापि दुर्निवारं स्तुतिकन्या बहात कौमारम् । सद्भ्यो न रोचते साऽसन्तस्तस्ये न रोचन्त । स्तुतिकन्या मष्टि प्रारंभसे आजतक कुंआरी चली बार है और उसके