________________
सुखोकी अस्थायिता
विवरण- जो लोग आत्मतत्वको नहीं समझते, वे किसी भी प्रकार वेदज्ञ नहीं हैं । धन्य हैं वे लोग जिनके जविनसत्र (यज्ञ) का रूप धारण करके बेकी टीका या भाष्यरूप होकर संसारके लोगोंके सामने पाठ्य ज्ञान - ग्रन्थोंका का रूप लेकर रहने लगे हैं । ऐसे लोगों के जीवन संसारान्धकार में भटकनेवाले लोगोंके लिये ज्ञानदीपका काम करते हैं। इस सूत्रमें अथर्ववेदको ऋग्यजुः साममें अन्तर्भाव करके चारों वेदोंको त्रिवेद कहा है । प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुध्यते
करनेवाला जो
तं विदन्ति तु वेदेन तस्माद् वेदस्य वेदता ॥ वेदका वेदस्व इसी बात है कि मानव- -जीवनको सफल उपाय प्रत्यक्ष या अनुमानसे न जाना जासके वह उससे ज्ञान लिया जाय । व्यवहार में शुद्धि स्वरूप-बोध ( कि मैं कौन हूँ, दूसरे कौन हैं, संसार क्या है ? इनसे मेरे क्या संबन्ध हैं यह बात ठीक समझ लेने) से ही मानवजीवन सफल होता है । ईश्वरबोधसे ही जीवन में पवित्रता भाती है । ईश्वर मानवजीवनको अनिवार्य आवश्यकता है । यही कारण है कि संसारभर में ईश्वरकी कल्पना पाई जाती है। मानवजीवनको मनुष्यतामें ढालनेका जो सांचा है वही तो ईश्वर है । जिस समाजकी जैसी ईश्वरकल्पना होती है उस समाजका वैसा ही चरित्र होता है । मनुष्य की ईश्वरकल्पनामें जहां दोष रह जाता है वहीं उस समाजका चरित्र दूषित होजाता है । इसका अर्थ यह हुआ। कि संसारकी जो जाति आज चरित्रहीन हैं उनकी ईश्वरकल्पनामें ही
दूषण
है
1
४३५
( सुखोंकी अस्थायिता )
स्वर्गस्थानं न शाश्वतम् ( यावत्पुण्यफलम् ) ॥४८२॥ कर्मोपार्जित दैहिक सुखभोग सदा नहीं रहा करते ।
विवरण- वे उस दिन नष्ट होजाते हैं जिस दिन उसे देनेवाले पुण्य भोगानुकूल कर्मोंका प्रभाव क्षीण होजाता है । मानव सुख-भोग समाप्त