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साधुका उपकारकके प्रति आत्मविक्रय
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रामनामी दुपट्टा भी चोरी और उगका ही साधन माना जाता है इसीप्रकार भावना शुद्ध न होनेपर शुभकर्म भी बुरी भावनाका ही अंग बन जाता है । यह संसारचक्र, रागद्वेष पुण्यपाप तथा सुखदुःख नामके ६ भरोंसे चलता है । मानवजीवन में इनमें से किसी न किसी पक्षका निर्बल, सबल होते रहना अनिवार्य है । जो दुःखसे बचना चाहें वे मानसपाप करना त्याग दें । जो सुखी होना चाहें वे मानस पुण्यानुष्ठान करें अर्थात् सद्भावनासे जीवनयापन करें । मनुष्य स्वाधीन मानस सुखदुःखको न समझ कर उन्हें छटानेका प्रयत्न न करके सादी श्रायु उन पराधीन भौतिक सुखदुःखोंसे झगड़ने में ही व्यर्थ खोदेते हैं जिनपर उनका कोई वश नहीं चलता । मानव के भौतिक अस्तित्वपर अंतिम विजय भौतिक दुःखों की ही होती । रोग, शोक, चोट और मृत्यु ही शरीर के अन्तिम स्वामी सिद्ध होते हैं । जिन मानस सुखदुःखोंपर मनुष्यका वश चल सकता है, जहाँ वह पूरा दुःखविजयी बन सकता है, वहां अपने उस मानक्षेत्रपर अपना वशीकार न करके मनुष्य अपनी ही भूलसे दुःखका पात्र बना रहता है |
मनुष्य भौतिक जगत्पर अधिकारहीन है, जबकि वह अपने मानस संसारका एकच्छत्र समाद् है । यह कितने बड़े दुःखकी बात है जहां उसे सम्राट्की स्थिति लेकर रहना चाहिये वहां तो वह अपने अज्ञानसे भिख मंगेकी दोन हीन स्थिति लेकर रहता है और जहां ( प्राकृतिक क्षेत्र में ) वह स्वभावसे अधिकारहीन है वहां वह अपना अधिकार स्थापित करने की धुन में अपनी आयुष्यका अमूल्य थोडासा समय व्यर्थ खोकर यहां रीते हाथ चला जाता है । ओ मानव ! तू सुखदुःखके स्वाधनिक्षेत्रपर ही सुखदुःख पर विजय पानेका प्रयत्न कर, अनधिकार क्षेत्रपर ठोकर मत मार और उसे उपेक्षापक्ष में डालकर सुखी बन ।
( साधुका उपकारक के प्रति आत्मविक्रय ) तिलमात्रमप्युपकारं शैलमात्रं मन्यते साधुः ॥ ३९८ ॥ साधुवृत्तिके लोग छोटेसे उपकारको भी महोपकार मानकर चिरकृतज्ञ बने रहते हैं ।
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