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अपात्रका उपकार अकर्तव्य
( अपात्रका उपकार अकर्तव्य ) उपकारोsनार्येध्वकर्तव्यः ॥ ३९९ ॥
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उपकार अकृतज्ञ अपात्र के साथ करनेकी वस्तु नहीं है । विवरण - परसुखलोभी ही अनार्य कहाते हैं। अनार्य लोग उपकर्ताको भी डंक मारनेवाले बिच्छू के समान स्वभावसे सबके ही द्वेषी होते हैं । इनसे परिचय बढाना इनके दुष्ट स्वभावका आखेट बनना तथा उन्हें बढावा देना होता है । किससे कैसा व्यवहार करना ? यह मनुष्य के सीखनेकी एक महत्त्वपूर्ण नित्य - व्यवहार्य कला है। कौन मनुष्य किस योग्यता और अधिकारका है ? यह बिना जाने किया व्यवहार अपने ही लिये घातक होजाता है | मनुष्यको पुरुषपरीक्षा होनी चाहिये। नहीं तो संसार में वह पदे पदे ठगा जायगा ।
अनार्य लोगोंके साथ तो उपेक्षाका बर्ताव करना चाहिये और इनसे उपेक्षाका ही संबन्ध भी रखना चाहिये। सज्जनोंसे मैत्री, उन्हींका उपकार, सुपात्र दोनोंपर दया, सुपात्र सुखियको देखकर मुदिता तथा पापियोंका विरोध ही श्रेष्ठ नीति है । इसी नीतिसे आर्यताकी रक्षा होती है । अनायोंके साथ उपकारकर्ताका संबन्ध स्थापित करनेका परिणाम दुःख ही होता है । राज्यसंस्था में बनायको न जाने देनेके लिये राष्ट्रको आर्यभावापन्न होना चाहिये । यदि राज्यसंस्थाका निर्माण करनेका अधिकार रखनेवाला राष्ट्र असावधान होगा तो राष्ट्रको लूटकर अपना व्यक्तिगत धनभंडार बढाने के इच्छुक अनार्य लोग, राज्यसंस्थामें घुसकर अपनी भोगेश्वर्येच्छाकी पूर्तिके लिये राष्ट्रके साथ अवश्य ही विश्वासघात करेंगे। राष्ट्रका हिताहित समझनेवाले राष्ट्रके सत्पुरुषोंको विश्वास्य, अविश्वास्य, कृतघ्न, कृतज्ञको पूरी पहचान होनी चाहिये । वे इस काम के लिये पहले परीक्षणके रूपमें दूसरोंका गर्हित हानिकी संभावना रहित विश्वास तथा उपकार करके ही कृतज्ञ तथा विश्वासपात्रों को पहचान कर अपना सकते तथा विश्वासघातियों और कृतघ्नों से बच सकते हैं । भार्य तथा अनार्यकी पहचान व्यवहारविनिमय में ही