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अन्नदानका माहात्म्य
विवरण- अपने पास रक्खे हुए अलका देव, द्विज, ब्रह्मचारी, विद्यार्थी, दीन, अंध, आतुर, पंगु रोगी, निःसहाय लोगोंको ही, जिन्हें पालना समाजका पवित्र कर्तव्य है, यथार्थ स्वामी मानकर प्रेमपूर्वक कर्तव्यबुद्धि से दिया अन्नदान भयंकर पापका भी परिमार्जन कर देता है अर्थात् दाताको पुण्यात्मा बन चुकने का आत्मप्रसाद देता है ।
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सच्चे दानसे मनुष्य की पाप करनेकी प्रवृत्तिये ही मर जाती हैं। अनहंकृत दान ही दान है । अहंकारपूर्वक दिया दान दान न होकर एक प्रकारका व्यापार या कुसीदपर धन लगाना है । जिस मनुष्यके हृदय में समाजकी दुर्भिक्ष पीडाके समय समाजका अनकष्ट दूर करनेकी उदार भावना समाजनारायणकी अनन्यभक्तिका रूप लेकर उदित होजाती है, उस मनुष्य के हृदयकी पापप्रवृत्ति नष्ट होचुकी होती है। चाहे वह अपने अतीत में भ्रूणहत्या जैसे पाप ही क्यों न करचुका हो। ऐसा मनुष्य भूतकालमें पापी रहा होनेपर भी गीता" क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्ति निगच्छति' शब्दों में शीघ्र धर्मात्मा हो जाता तथा निरन्तर शान्ति पाजाता है । जब कोई दाता अपने हृदय की दानप्रवृत्तिको समाजसेवा में नियुक्त कर देता है तब उसके हृदय में प्रेमकी अमर गंगा की धारा प्रवाहित होने लगती है। ऐसे मनुष्य के हृदय में से पापप्रवृत्ति सदाके लिये लुप्त होजाती है ।
पाठक ध्यान दें कि इस सूत्र में भ्रूणहत्या के अपराधको हल्का करने के लिये दान देने को नहीं कहा गया हैं । इसमें तो दानकी महिमा गाकर हृदयसे पापप्रवृत्तिको सदा के लिये निर्वासित करनेका अव्यर्थ उपाय बताया गया है । इस सूत्र में समाजसेवा के लिये अपनी धनसंपत्तिपरसे अपना व्यक्तिगत अधिकार हटाकर उसपर अपने उपजीव्य समाजका अधिकार स्वीकार कर लेने को ही अपने हृदयको पुण्यकी पवित्रतासे अमृतमय बना डालनेका रहस्य बताया गया है ।
पाठान्तर
यथाचरितमन्नदानं
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विधिविद्दितीत किया अन्नदान शेष अर्थ समान है ।