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विष तथा अमृतका भंडार
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( वृद्धि या विनाश सुवाणी कुवाणी पर निर्भर )
जिह्वायत्तौ वृद्धिविनाशौ ॥ ४४०॥ मनुष्यके वृद्धिविनाश उसकी सुवाणी तथा कुवाणीपर निर्भर होते हैं।
विवरण- यदि मनुष्य अपने सहकर्मियोंका सम्मान तथा उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करता रहे तो उसकी वृद्धि और यदि वह उनका अपमान करे तो उसका विनाश होता है । मनुष्यके वृद्धि विनाश वाणीके सदुपयोग दुरुपयोगपर ही निर्भर होते हैं। मनुष्य दुर्वाणीसे कार्यहानि तथा मधुर. वाणीसे कार्य में सुकरता होती देखकर अपनी सुचिन्तासे अपनी वाणीको संयत रक्खे।
वाङ्माधुर्यात् सर्वलोकप्रियत्वम् ।
धाक्पारुष्यात् सर्वलोकाप्रियत्वम् ।। मधुरभाषी सबका प्रेम प्राप्त करनेमें सफल होजाता है। वाणीकी कठो. रता गर्दभके हेषारव २ कुत्ते के भौंकने के समान मनुष्यको सवकी घृणाका पात्र बना देती है।
इस सूत्रमें जिह्वा दूपरी इन्द्रियों का भी उपलक्षण है । जिह्वाके समान अन्य इन्द्रियों के संयम तथा चंचलतायें भी मनष्यकी वृद्धि या हानि करने. बाली होती हैं।
(विष तथा अमृतका भंडार ) विषामृतयो राकरो जिह्वा ॥ ४४१ ॥ जिह्वा विष तथा अमृत चाहे जिसकी आकर बनाई जा सकती विवरण--- मनुष्य अपने मन की स्थिति के अनुसार ही वाक्योचारण करता है । शान्त मनसे शान्तवचन और अशान्तमनसे अशान्तवचन निक. लता है । अशान्त होकर वचन बोलना अशान्ति पैदा करनेवाला होता है ।
२६ (चाणक्य.)