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ध्रुव अल्पको मत त्यागो
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मूत्रोत्सर्जन करते हैं उसके बालक भी खडे होकर मूत्र करने में गौरव अनुभव करते हैं । जिस कुटुम्बके बड़े लोग एक थाली में एक दूसरेका जूठा खा लेते और एक पात्र में जूठा पानी पी लेते हैं उस घरके बालकोंको उच्छिष्ट भोजन, धूम्रपान तथा उच्छिष्टपानमें धृणा नहीं रहती। उन्हें पतित रोगियोंकी जूठनकी संभावनावाले साझेके बाजारू पात्रों में पेयपान करने में घृणा नहीं रहती। ( ऊंचेसे ऊंचे विद्यालय कुलाचारसे ऊंचा आचरण नहीं सिखा सकते )
संस्कृतः पिचुमन्दो न सहकारो भवति ।। ४६१ ॥ जैसे गुड आदिके संस्कारोंसे संस्कृत भी निम्बवृक्ष अपनी स्वभाविक तिक्तता त्याग कर आम्रवृक्ष नहीं बन जाता, इसी प्रकार दुर्जन किसी प्रकार भी उपदेश, प्रचार आदि द्वारा दुर्ज. नता त्याग कर सजन नहीं बनता ।
विवरण- मनुष्य अपनी कुलपरम्परासे ऊंचामाचरण नहीं कर सकता। बालकपनमें अपने उत्पादक कुलसे सीखा हुमा स्वभाव सैकडों यत्नोंसे भी नहीं छटता । जैसे मिट्टीके नये पात्र में सबसे पहले भरी हुई वस्तकी गन्ध उसके अन्तरतम तक समा जाती है और कभी नहीं बदलती, इसी प्रकार बाल्यावस्थामें सीखे कौटुम्बिक संस्कार अपरिवर्तनीय होते हैं । पाठान्तर-सुसंस्कृतोऽपि पिचुमन्दो न सहकारः ।
( अध्रुव महान के लिये ध्रुव अल्पको मत त्यागो )
न चागतं सुखं परित्यजेत् ॥ ४६२॥ ध्रुव अल्पसुखको अनागत अध्रुव बृहतके लिये न त्यागे। विवरण-मनुकूल वर्तमानको त्यागकर भनिश्चित भावीकी भाशासे उसके पीछे दौड़कर उभयभ्रष्ट न बने । माया सुख न छोडे । सुअवसर खोना नहीं चाहिये । सुअवसर गाढान्धकारमें प्रकाशदर्शनके समान दुर्लभ