________________ राजाका द्वेष्य बनना अकर्तव्य 407 कुप्रवृत्तियोंको रोक देनेवाले श्रुतिमधुर, युक्तिसंगत तथा सह्य हों। यही वचनका एकमात्र उद्देश्य है। श्रुति कटुवाक्यसे यह उद्देश्य पूरा नहीं होता, प्रत्युत कटुवाक्य कलहकी सृष्टि करनेवाले कलहके चिरस्थायी बीज बन जाते हैं। जब समाजकल्याणकी दृष्टि से किसी सत्यको प्रकट करके अपराधीको अपराधी सिद्ध करना ठद्देश्य हो, तब उसके प्रति विरुद्ध मारोपको व्यक्त करना समाजसेवाके रूपमें न केवल समर्थनीय प्रत्युत प्रशंसनीय भी होता है / तब भी कटाक्ष नहीं करना चाहिए। सूत्र कहना चाहता है कि संताप पहुचाने की भावनासे तो नीचको नीच भी मत कहो / कर्तव्यके वश होकर तो नीचको उचित मर्यादामें नीच कहना कर्तव्य होता है। समाजकल्याणकी दृष्टि से नीचों की पर्याप्त भर्सना की जा सकती है / इस दृष्टि से विचारशील लोग किसी की निराधार भत्र्सना न करे। साधार भत्र्सना भी अपराधको सीमा तक ही करनी चाहिये उससे मागे साधार भर्सना मी असा हो जाती है / पाठान्तर- अनृतादपि दुर्वचश्चिरं तिष्ठति / दुर्वाक्य असत्य से भी अधिक चिरस्थायो होता है / ( राजाका द्वेध्य बनना अकर्तव्य ) राजद्विष्टं न च वक्तव्यं // 445 // राजाके व्यक्तित्वपर अप्रिय आरोप नहीं करना चाहिये / राजा या उसके प्रतिनिधिको अप्रिय वचन नहीं कहना चाहिये / विवरण- राजा या उसके प्रतिनिधिको व्यक्तिगत रूपमें न देखकर उसे प्रजाकी सामूहिक शक्तिके केन्द्र के रूपमें देखना और उसके साथ अनुत्तेजक नम्र वाग्व्यवहार करना चाहिये / क्योंकि राजाके पास प्रजाकी सामूहिक शक्ति केन्द्रित रहती है इस कारण राजरोष मानवरोषसे सहस्रों गुणा भधिक होता है / राजाके प्रति बोले गये अप्रिय वचनोंसे उसके मन में