________________ 406 चाणक्यसूत्राणि मनुष्यको जानना चाहिये कि उसके हितका केवल अपनेसे ही सम्बन्ध नहीं है, किन्तु उसका हित दुसरोके हितोंके साथ अविभाज्यरूपसे पूर्णतया सम्मिलित है। प्रत्येक वक्ताको अपने परसम्बद्ध हितको या अपने हितकी परसम्बद्धताको ध्यान में रखकर ही वाक्य बोलना चाहिये / तब वक्ताका वचन समाजहितकी सीमाका भंग करनेवाला नहीं बनेगा। क्रुद्ध होकर बोला हुमा वचन पहले तो वक्ताके हृदयपर आघात करता है। उसके पश्चात् क्रोधपात्रके हृदयपर चोट पहुंचाता है। ऐसा वचन अपने वक्ताका अनिष्ट कर चुकने के पश्चात् अपने श्रोताको क्रुद्ध तथा उत्तेजित कर डालत! है / दुर्वचन वक्ता श्रोता दोनों ही पक्षों के लिये मनावश्यक तथा मनिष्टकारी होता है। दुर्वचन साधार, निराधार किसी भी अवस्था में समर्थनीय नहीं है। यह तो मानना ही पडेगा कि वक्ता श्रोताके पारस्परिक संबन्ध मधर होने चाहिये / जब वक्ता श्रोताके पारस्परिक संबन्ध कडवे होजाते हैं तब वक्ताके वचनोंमें कड़वापन भाना स्वाभाविक होजाता है इसलिए उस समय मौन ही सत्य भाषण है। पारस्परिक संबन्धोंकी मधुरता ही मधुर वचनोंकी जननी है। इस सूत्र में सत्पुरुषों को ही अनिष्टकारी वचनोंसे रोका जा रहा है / अस. पुरुषों को नहीं / असत्पुरुषों के लिये कोई शास्त्र या विधिविधान नहीं होता / दण्ड ही मसरूषों का एकमात्र शास्त्र होता है / वक्ता उत्तेजनाके अवसरपर श्रोताका मर्मच्छेद करने के लिये कडवी बात कहता है / उस समय उसके निराधार या साधार प्रत्येक वाक्य का परिणाम स्थायी शत्रता होजाता है। चाहे मनुष्य अनिष्टकारीके आचरणपर उचित कटाक्ष ही क्यों न करे वह भी उसे उत्तेजित करनेवाला होजाता है। भद्र लोग अपनी भूलपर उचित भर्सना तो सुन सकते हैं परन्तु दुष्ट कदापि कटाक्ष या दुर्व चन सुननेको उद्यत नहीं होता / इसलिये जब कभी भनिष्टकारीको वचनके द्वारा अनिष्ट करनेसे रोकने का कर्तव्य आये, तब यह ध्यान रखकर ही उससे कुछ कहना चाहिये कि उच्चार्यमाण वचनसे उसकी प्रतिहिंसाकी प्रवृत्तियों को उत्तेजित होनेका अवसर न मिलने पाये, प्रत्युत तुम्हारे वह वचन उसकी