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चाणक्यसूत्राणि
( विनाशका पूर्वचिन्छ )
उपस्थितविनाशः पथ्यवाक्यं न शृणोति ॥ ३९५ ॥
अवश्यंभावी विनाशवाला हितैषियों के पथ्य वाक्य नहीं सुना
करता ।
दीपनिर्वाणगन्धं च सुहृद्वाक्यमरुन्धतीम् । न जिघ्रन्ति न शृण्वन्ति न पश्यन्ति गतायुषः ॥
नष्ट होनेको प्रस्तुत लोगोंको दीपक बुझनेकी गंध नहीं आती, हितैषियोंके उपदेश सुनाई नहीं देते और अरुन्धती नहीं दीखती । " विनाशकाले विपरीतबुद्धिः । " बुरे दिन जानेपर मनुष्यकी बुद्धि, विपरीतग्राहिणी होजाती है । विपत्ति के दिनों बर्डों बडोंकी बुद्धियां भ्रष्ट होजाती हैं ।
बुद्धिमान् वही है जो सर्वावस्था में ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध हितैषियोंके साथ सम्मिलित रहकर उन्हीं की सुबुद्धिसे परिचालित होकर उन्हींकी अभिज्ञता और उन्हीं के ज्ञानालोकसे अपना कर्तव्यमार्ग देखता रहता है । कर्तव्य भ्रष्ट न रहने की यही कुंजी है कि मनुष्य कर्तव्याकर्तव्य निर्णय के संकटपर बुद्धिमानू लोगों से परामर्श लेकर अभ्रान्त बना रहे ।
( सुखदुःख जीवनकी अनिवार्य स्थिति )
नास्ति देहिनां सुखदुःखाभावः ॥ ३९६ ॥ देहधारियोंको भौतिक सुखदुःख मिलना कभी बंद नहीं हो
सकता ।
विवरण -- मनुष्यको उचित है कि वह संसारी सुखदुःख दोनों को संसारकी अनिवार्य घटना मानकर इनसे विचलित न होकर ( अर्थात् कभी सुखी कभी दुःखी न होकर ) अप्रभावित रहे और इनके विषय में अपना दृष्टिकोण बदलकर अपनी बुद्धिको स्थिर रक्खे । वह सुखमें उल्लसित होना तथा दुःखसे पराभूत या अवसन्न होना त्याग दे । वह जाने कि यह तो होना ही है | बुद्धिमान् मनुष्य ऐसा दृष्टिकोण बनाकर संसार में विजेताकी