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चाणक्यसूत्राणि
( गुणी स्त्रीपुरुषों की दुर्लभता समाजका महादुर्भाग्य ) सुदुर्लभं रत्नम् ॥ ३१४ ॥
गुणी लोग संसारमें सुदुर्लभ होते हैं ।
विवरण - जिसका सौन्दर्य तथा तेजस्विता चित्ताकर्षक होती है वही बरन कहाता है । समाजको अलंकृत करनेवाले स्त्रीपुरुष रत्न कहाते हैं । किसी देश में समाज के ललामभूत स्त्रीपुरुषोंका उत्पन्न होते रहना उस देशका सौभाग्य है । राज्यव्यवस्थापकोंका कर्तव्य है कि वे अपने देश में रत्नको उत्पन्न करनेयोग्य पवित्र वातावरण बनाकर रक्खें । राजाका कर्तव्य है कि वह स्वयं अपने समाजके ऐसे दुर्लभ नरनारियोंको पहचाननेवाला रत्न बनकर उन्हें अपने राष्ट्र के शिरोभूषण के रूप में पूज्य वरेण्य स्थान देकर समाजकी श्रीवृद्धि करे ।
रत्न शब्द स्वजाति में श्रेष्ठ तथा सूर्यकान्त, चन्द्रकान्त, पद्मराग, नीलकान्त आदि विविधरनोंका वाचक है । रत्न धारण करना धन्य यशस्य मायुष्य, श्रीवर्धक व्यसननाशक हर्षण, काम्य तथा औजस्य मानाजाता है : समाज में मनुष्यत्व के संरक्षक लोग राष्ट्रके वरेण्य रत्न हैं । मनुष्यताका संर क्षण रत्नपरिचय करनेकी कसौटी है । भारतकी वैदेशिक विश्वविद्यालयों तथा वैदेशिक वक्तृतामंचों ( प्लेटफार्मों) से विजातीय रहन-सहन के उपासक मनुष्यताघाती वैदेशिक जडवादी सभ्यता के उच्छिष्टभोजी भासुरी सभ्यताकी चापलूसीकर के प्रमाणपत्रसंग्रह करनेवाले आत्मसम्मानद्दीन अनुकरणपरायण पवित्र सनातन आर्यसंस्कृति पर कुठाराघात करनेवाले श्वेतवस्त्रावृत ( सफेदपोश ) नकली रत्नोंको झाडबुहार कर फेंकनेवाली आंखें खुरुजानी चाहिये !
पाठान्तर-
दुर्लभं रत्नम् ।
( निन्दित आचरण जीवनकी भीषण अवस्था )
अयशो भयं भयेषु || ३१५ ॥
अपयश अर्थात् निन्दाई आचरण मनुष्यको मनुष्यतासे हीन बनाडालनेवाली भीषणतम अवस्था है ।