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चाणक्यसूत्राणि
प्रजाका उपहार मार्थिक मूल्यसे निर्णीत न होकर प्रजाके हार्दिक प्रेमसे पूत होकर ऐसी मंत्रशक्ति धारण करनेवाला होना चाहिये कि राजाका हृदय प्रजाके प्रति माकृष्ट होसके । राज्याधिकारका दुरुपयोग करनेवाले सत्ता. धारियोंको घूस देनेकी प्रवृत्तिमें प्रोत्साहन देना इस सूत्रका उद्देश्य कदापि नहीं है।
( गुरुदर्शन तथा देवदर्शनका आचार )
गुरुं च दैवं च ॥३७५॥ ज्ञानदाता गुरू. देवस्थान या धर्मोपदेष्टा शीलसम्पन्न महा. स्माके पास भी श्रद्धाभक्तिसूचक उपहार लेकर ही जाना चाहिय ।
विवरण--- इन लोगोंसे ज्ञानका हार्दिक मादानप्रदान होते रहने तथा इनका हार्दिक अनुमोदन पाते रहने के लिये इस प्रकार विनम्र शुश्रुपु बर्ताव स्वहितकारी कर्तव्य है।
वित्तं वन्धु वयः कर्म विद्या भवति पंचमी ।
एतानि मान्यस्थानानि गरीयो ह्युत्तरोत्तरम् ॥ धन, बन्धुता, आयु, आचरण तथा विद्या ये पांच मान्यताके कारण हैं। इनमें पिछले पिछलोंका महत्व बडा है ।
गुरुजनों तथा देवताओं को उपहार देनेमें इनका नहीं किन्तु इनके गुणों का ही मादर किया जाता है। मनुष्य अपने मनको गुणग्राही बनाकर ही गुणीका प्रेमपात्र बनसकता है। ऐसे गुणग्राही लोगों के लिये उपहारोंके द्वारा गणों की पूजा करना स्वाभाविक शिष्टाचार है । इस शिष्टाचार को न पालना गणोंकी उपेक्षा करना तथा उद्धत स्वभावका परिचय देना होता है। गुणवाहिता ही गुणी समाजमें सम्मान पाने की योग्यता है। गुणो के दर्शनाभिलाषी लोग गुणी के व्यक्तित्वको ही उसके गुणोंका प्रतीक मानकर उसको पूजा करते हैं । गुणीसमाजका यह पारस्परिक शिष्टाचार सर्वमान्य शिष्टाचार है ।