________________
३५०
चाणक्यसूत्राणि
पाकर गये हैं मनुष्य मानवताके विकासक उसी सन्मार्गसे चले। उसपर चलनेसे कभी दुःख नहीं भोगता।
मजास्थिस्नायवः शुक्काद्रक्तान्त्वंड्यांसशोणिताः ।
सन्तानके शरीर में मजा, अस्थि तथा स्नायु पिताके देवसे आते हैं। त्वचा, मांस तथा रक्त माताके शरीरसे आते हैं।
(सच्चा पुत्र) दुर्गतेः पितरौ रक्षति स पुत्रः ॥३८६॥ पुत्र दुर्गतिसे मातापिताकी रक्षा करते हैं । विवरण-पुत्र का जन्म होते ही पिता-माताके सम्मुख सन्तानपालन धर्मका उत्तरदायिस्व मा खडा होता है। यों भी कह सकते हैं कि पुत्रका जन्म होना ही धार्मिक पिता-माताके जीवनका पवित्र धर्मबन्धन में बंध होजाता है । पुत्रजन्म होते ही पिता-माताके सम्मुख पुत्रके सामने मनुष्य. ताके आदर्शको मूर्तिमान् करके रखनेका कर्तव्य उनके जीवन के लक्ष्यका रूप ले लेता है। पुत्रजन्म होते ही अभिभावके उच्छंखल जीवन बितानेका मार्ग रोक देनेवाला मानवीय मादर्श शक्तिमान् बनकर माता-पिताको सत्यरक्षा नामक लोहशृंखलामें बांधकर खडा कर देता है और परिवारको आदर्श तपोवनका रूप दे डालता है । आर्य विचारों के अनुसार अज्ञानरूपी नरकसे त्राण करनेके अर्थ में ही सन्तानको पुत्र कहा जाता है । सत्यस्वरूप ज्ञान. ज्योति ही मनुष्यको अज्ञानरूपी नरकसे बचाती है। अज्ञानरूपी नरकसे माता-पिताका त्राण करनेवाली सत्यस्वरूप ज्ञानज्योति स्वयं ही सन्तानपालन धर्मका रूप लेकर माता-पिताकी गोदको ज्योतिर्मय बना डालती है। जीवनके उञ्च सादर्शको अपने परिवारके बालमुनिमण्डल में व्यावहारिक रूप देकर धन्य होना माता-पिता बनने के अभिलाषियों के लिये बड़े ही सौभाग्यकी बात है। यही सौभाग्य माता-पिताके पास सन्तानका रूप लेकर आता है। सन्तानके रूप में उपस्थित हुआ यह सौभाग्य माता-पिताको कुगृहस्थीका