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राजनियम श्रद्धासे पालो
उत्तरदायित्व देशके निर्विरोध शान्त लोगोंपर है । मनुष्यसमाजको दुःखी करनेवाले उपद्वी लोग संख्यामें मल्प होनेपर भी भद्र समाज ( बहुमत ) की जडताके कारण समाजको असंगठित पाकर उसे तिरस्कृत करडालते हैं। इन सब दृष्टियोंसे स्वयं भला रहने के साथ ही साथ मनुष्यसमाजमें समा. जकी स्वभाविक साधुताको जगाकर रखना भी तो समाज हितैषियों का ही कर्तव्य है । सच्चे समाज में साधुवृत्तिका जाग्रत रहना ही मनुष्यसमाजमें साधुनोंकी बहुलता होजाना है। समाज में साधुवृत्ति के जागे रहते हुए उसमें साधुओं की बाढ आजाना इतना हो सुगम होजाता है जैसा कि मेघमुक्त माकाशमें प्रभातसूर्य के उदयसे पृथिवीका मालोकीत होना सुगम तथा सुनिश्चित होता है।
राजनियम श्रद्धासे पालो ) राज्ञो भेतव्यं सार्वकालम् ।। ३७१ ॥ राजरोषका पात्र नहीं बनना चाहिये। विवरण- मादर्श राजा वही है जो समय राष्ट्रके हित तथा अपने व्यक्तिगत हितको अभिन्न समझता है तथा राष्ट्रको स्पष्ट या अस्पष्ट सम्मतिसे सिंहासनारूढ होता है । अज्ञानमें डूबा हुमा राष्ट्रका महत्वहीन भाग राष्ट्र नहीं, राष्ट्रके प्रधान बुद्धिमान है, किन्तु सेवापरायण लोग ही राष्ट्र हैं । इन लोगोंकी सम्मति या इनका सहयोग ही राष्ट्र की सम्मति है। (इस दृष्टि से राष्ट्र के इन बुद्धिमान लोगों के सहयोगके कारण भारतके एकतंत्र दीखने वाले प्राचीन राज्य सदाले प्रजातन्त्र रहते चले आरहे हैं।) इस प्रकार के मादर्श राजाके रोषका पात्र बनना राष्ट्रद्रोह है । राष्ट्रद्रोही न बनना ही राजभक्ति है। राप्रद्रोह आत्मद्रोह है। राजसिंहासनारूढ राजा सारे राष्ट्रका प्रतीक या उसका मूर्तिमान प्रतिनिधि है। जैसे झण्डा राष्ट्रको पूज्यताका प्रतीक है इसी प्रकार राजा भी उसकी पूज्य बुद्धि का प्रतीक होनेसे मादरणीय है। राजाको ऐसा ही होना चाहिये तथा उसे ऐसा ही मानना भी चाहिये । जब समाजमें राजाको इस दृष्टि से देखने की भावना