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चाणक्यसूत्राणि
पुत्रको अपने पिताको शरीरधारी या साकार ईश्वर मानकर उसके साथ पूर्ण वात्मसमर्पणका सम्बन्ध जोडकर रहना चाहिये । पिता बननेकी अभिलाषा रखनेवालोंका समाजकी मनुष्यताका संरक्षक समाजसेवक होना भनिवार्यरूपसे आवश्यक है । उनका यह भी कर्तव्य है कि वे अपनी सन्ततिके सम्मुख इसी मादर्शको रखकर पारिवारिक नेतृत्व ग्रहण करें। जो पिता बननेवाले लोग अपनी सन्तान के सम्मुख इस उच्च आदर्शको नहीं रखते, उनकी
सन्तानोंका लक्ष्यहीन उच्छंखल निर्गुण होना अनिवार्य है । पिता ही सन्ता. नोंके स्वभाविक संरक्षक तथा मदिर्श होते हैं। सन्तति अपने स्वभाविक संरक्षक मातापिताकी इच्छाके अनुयायी जीवनलक्ष्य निर्णय करने में ही अपने जीवनकी सफलता समझती हैं। सन्तानकी इस अनुकरणप्रवृत्तिका दुरुपयोग न करके इसका सदुपयोग करना योग्य मातापिताका गंभीर कर्तव्य है । सन्तानका उच्छृखक होना सिद्ध करता है कि पिता लक्ष्यहीन है तथा इसीलिये कर्तव्यहीन है।
( अनुचित आदर तथा भेट मत सहो)
अत्युपचारः शङ्कितव्यः ॥ ३३९॥ किसीका अधिक लोभनीय सामग्री प्रस्तुत करना संदेहकी दृष्टिसे देखना चाहिये कि ऐसा क्यों किया जा रहा है ?
( कुपित स्वामीपर प्रतिकोप न करके अपनी भूल सुधारों ) स्वामिनि कुपिते स्वामिनमेवानुवर्तत ॥३४० ॥ प्रभुके कुपित होनेपर उसीको प्रसन्न करना चाहिये। विवरण- जैसे भूमिपर गिरपडनेवाला मनुष्य उसीपर हाथ टेककर उपर उठता है, इसीप्रकार आश्रित भृत्यलोग अपनी किसी भूलसे या भ्रमवश स्वामीके कुपित होजानेपर अपने यथार्थ उपकारक नायक पालक स्वामीको ही प्रसन्न करनेका प्रयत्न करें।